भगवान् गौतम बुद्ध प्रवर्तित धर्म सुधारणाओं में अत्यंत आवश्यक सुधारणा यह थी कि ईश्वर-प्राप्ति के लिए मनुष्य अपनी देह को नानाविध अघोर पाप से यूँ ही दंडित न करें। अनशन से मरना, एक ही टाँग पर खड़े रहना, एक हाथ ऊपर उठाकर आजीवन उसे उसी स्थिति में रखना, चाहे वह काठ बनकर निर्जीव एवं सुन्न क्यों न हो, कील के सिरों की सेज तैयार करके उसपर सोना, अपने किसी अंग को जलाना, ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में पंचाग्नि में बैठना आदि देहदंड के अघोर तप कभी कल्याण के साधन नहीं बन सकते। ऐसा भगवान् जो इस प्रकार की अघोरी उपायों से प्रसन्न होता है कि वह कोई राक्षस ही होगा जो मनुष्य को बोर यंत्रणा देता है, न कि मनुष्य पर दया बरसानेवाला भगवान्। यदि ईश्वर दयाधन हो तो वह भक्तों को उपांग आग में ईंधन सदृश ढकेलकर उस सँगडी पर भला सेंक कैसे सकता है? इन्हीं तर्कों द्वारा भगवान् बुद्ध ने उग्र और अघोरी देहदंडनीय तप का, अनशन व्रत का तथा यज्ञ-यागादि हिंसात्मक कर्मकांडों का तीव्र निषेध किया है और बार-बार सावधान किया है कि दुःख, रोग, भुखमरी, हत्या आदि संकटों से लोगों को मुक्त करने के लिए सतत चेष्टा करना ही वास्तविक तप है।
निर्वाण से पूर्व मृत्युशय्या पर लेटे भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश किया, “चरथ भिक्खवे चारिकां ॥ बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय, अत्याय हिताय सुखाय देवास्यानुशासनम्॥” इन अत्युदार शब्दों में भगवान् बुद्ध ने धर्मप्रसार का अपना अंतिम संदेश दिया-
” जाओ! भिक्षु बंधुजनो, जाओ। बहुजन हित साध्य करते हुए बहुजन सुखाय, बहुजन करुणाय सतत प्रयत्नशील रहकर मेरे इस अनुशासन का दश- दिशाओं में प्रचार करो।”
इस आदेश को शिरोधार्य समझकर हमारे आर्यावर्त के धर्म प्रचारक, बौद्ध भिक्षु हिमालय की श्रेणियों व सागर लाँघकर एक तरफ उत्तर ध्रुव स्थित ज्ञात सिरे की सीमा तक तो दूसरी ओर मेक्सिको-ब्राजील की ग्वाटेमाला तक (गोतमालय तक) उस बुद्धानुशासन का संदेश फैलाते चले गए। हाँ, उस समय गए जब यात्रा करना अत्यंत कष्टमय था- प्रायः पैदल ही यात्रा करनी पड़ती। गोबी के वालुकारण्य में, तिब्बत के हिमारण्य में, दक्षिण अमेरिका के ग्रीष्मारण्य में भटकते, ठिठुरते, पसीने से तर होते कई बार बंदीवास, यंत्रणा और हत्याओं के चलते आर्यावर्त के उन लाखों भिक्खुओं ने मनुष्य जाति की सदियों तक सेवा की ज्ञान, विज्ञान, भाषा, शिक्षा, औषधि, शील-संयमों की अपनी अनमोल आर्य संपदा ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय च लोकानुकम्पाय’ देश-विदेश में मुक्त हस्तों से वितरित की। उनके समय में तथा उस काल तक मनुष्य जाति की ऐसी अतुलनीय सेवा तथा शुश्रूषा इन लाखों हिंदू भिक्षुओं ने की जैसी आज तक किसी ने नहीं की थी।
उस समय प्रचंड दुर्लध्य पर्वतों का उल्लंघन करते हुए तिब्बत में भी हमारे सैकड़ों सन्यस्त बौद्ध भिक्षु गए। संपूर्ण तिब्बत भगवान् बुद्ध की शरण में आ गया। प्रत्येक धर्म मतों, रोधों अथवा संस्था का विकास जब समय के विकास से पग-से-पग मिलाकर नहीं चल सकता तब उनमें उसकी दुर्गत हुए बिना नहीं रहती। इसी कारणवश बौद्ध संघ की ऐसी ही दुर्गत हुई। जिस तत्कालीन वैदिक कर्मकांड का भगवान् बुद्ध ने तीव्र विरोध किया, उससे भी अलग परंतु उतना ही कुटिल तथा बुद्धिशून्य कर्मकांड बौद्ध धर्म में प्रवेश किया। भगवान् बुद्ध के धर्मग्रंथ ही जो वेद त्रिकालाबाधित तथा ईश्वरोक्त प्रमाण नहीं होने का बुद्धिवाद कर रहे थे- त्रिकालाबाधित तथा ईश्वरोक्त समान ही अशंकनीय प्रमाण हो गए। भगवान् बुद्ध को ही जो ईश्वर को नकारते थे उनके अनुयायियों ने महादेव बनाया जो ऐसे अंधश्रद्धालु लोगों की जो वेद मंत्रों का शत बार उच्चारण करने से मोक्ष प्राप्ति – होती है अथवा वर्षा होती है, संतान प्राप्ति होती है, संपत्ति का लाभ होता है, शत्रु का विनाश होता है इस तरह निष्ठा रखते हैं-खिल्ली उड़ाते थे- उन्हीं बुद्ध के संघ में ‘ॐ मणिपद्योहम्’ अथवा ‘नमो बुद्धाय’ आदि मंत्रों के लक्ष लक्ष आवर्तन करने से भूत-प्रेत भाग जाते हैं, शत्रु की पराजय होती है, मोक्ष प्राप्ति होती है-इस प्रकार अंधश्रद्धा फैलने लगी। न भूतो न भविष्यति के रूप में मंत्र-तंत्र का जंजाल फैल गया। उन्हीं बुद्ध के धर्म में जो देह दंडन की तपस्याओं को अघोरी, अमानुष समझकर उनकी निंदा करते थे, आसुरी देहदंड को विचित्र विधियों धर्माचार बन गई। कुधारणा, अंधश्रद्धा, मूर्खता की भरमार होने लगी।
किसी भी व्यक्ति को अथवा ग्रंथ को त्रिकालाबाधित, अस्खलनीय, अंशकनीय समझकर उसे सार्वकालिक परम प्रमाण माना जाने से समझिए उस धर्म तथा समाज के विकास में गतिरोध हो गया। उस व्यक्ति की अथवा उस ग्रंथ की ऊँचाई, लंबाई तथा चौड़ाई से उस समाज का अधिक विकास हो ही नहीं सकता। न ही भविष्य में संभव होगा। फिर चाहे वह दो हजार पूर्वकालीन परम प्रमाण व्यक्ति अथवा वह सर्वज्ञानमय ग्रंथ ईश्वरनिष्ठ तथा ईश्वरोक्त वेद हो, अवेस्ता हो, बाइबिल ही, कुरान हो अथवा भले ही कोई अर्वाचीन गुरुग्रंथ हो अथवा चाहे वह व्यक्ति निरीश्वरवादी अथवा अज्ञेय वार्त्ता कोई बुद्ध या महावीर हो।
संपूर्ण राष्ट्र इस तरह की अंधश्रद्धा के कारण किस तरह अतीत के गड्ढे में ही दब जाता है, अन्य विज्ञाननिष्ठ समाज विकासपत्र पर एक संपूर्ण युग आगे बढ़ने पर भी यह अंधश्रद्धालु राष्ट्र किस तरह सहस्रों वर्षों पूर्व के अँधेरे में पिछड़ा हुआ रहकर टटोलता रहता है-इसका सबसे बढ़िया उदाहरण कोई देखना चाहे तो वह एक बार वर्तमान तिब्बत का छायाचित्र देखें।
तिब्बत देश की राज्य घटना ही अंधश्रद्धा के धार्मिक साँचे में ढली हुई है। तिब्बत की राज्यशक्ति का प्रमुख कर्णधार-तिब्बत का राज्यकर्ता और अधिशास्ता ही संन्यस्त भिक्षु संघ का धर्माध्यक्ष होता है। उसे दलाई लामा कहते हैं। तिब्बत राज्य प्रशासन का मूलभूत सिद्धांत है कि तिब्बत देश के धर्म तथा राज्य की रक्षा का संपूर्ण दायित्व ‘चेकयांग’ नामक देवता ने अपने सिर पर उठाया है और वह देवता किसी-न-किसी व्यक्ति में स्वेच्छानुसार संचरण करता है। तिब्बती राजनीति में इस देवता का अभिप्राय प्रत्येक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न में लिया जाता है और उसके अभिप्राय के अनुसार संधिविग्रहादि महत्त्वपूर्ण प्रशासन चलाना होगा। तिब्बतियों का विश्वास है कि अवलोकितेश्वर नामक देवता की मूर्ति बोल सकती है और राज्य विषयक, दलाई लामा विषयक रोग-परचक्रादि विपदा विषयक प्रसंग में उसका भी दैवी अभिप्राय पूछा जाता है।
दलाई लामा की मृत्यु पर भी उसे मृत नहीं समझा जाता। उनके सामने यह प्रश्न कभी नहीं होता कि एक व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् राज्यपद पर दूसरी को स्थापना करनी होती है और उस व्यक्ति का चयन किस तरह करना है। क्योंकि तिब्बत के राज्य शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार दलाई लामा जैसा व्यक्ति कभी मृत होता ही नहीं। दलाई लामा ने जैसे ही अपनी देह का त्याग किया उसी क्षण – तिब्बत में कहीं-न-कहीं उसका नया जन्म होता ही है। वह किसी नई काया में प्रवेश करता है। प्रजा का काम बस इतना ही होता है कि उस दलाई लामा ने तिब्बत में नया जन्म कहाँ लिया है-यह ढूँढ़े।
यह शोध भला किस तरह करें? राज्य घटना के अनुसार इसकी अनेक प्रणालियाँ निश्चित की गई हैं। ‘चेकयांग’ इस राष्ट्राध्यक्ष देवता का संचार होकर वह जो कुछ कहता है-वह एक साधन अवलोकितेश्वर की मूर्ति बोलना चाहती है और ऐसे में वह अपने पुजारी के सामने एकांत में प्राय: कुछ-न-कुछ बोले बिना नहीं रहती वह और एक साधन परंतु इस अथवा अन्य साधनों की अपेक्षा प्रमुख निर्णायक साधन वही क्षण है जिस क्षण दलाई लामा ने अपने पूर्व शरीर का त्याग किया। इधर जिस क्षण उन्होंने देह त्याग किया—उसी क्षण दूसरी देह में प्रवेश करके जन्म लिया होगा। इसके लिए संपूर्ण तिब्बत में इसकी कसकर खोज की जाती है कि ठीक उसी क्षण किसके यहाँ बालक ने जन्म लिया।
यदि उसी क्षण जनमे हुए एक से अधिक बालक मिलें और ऐसा कभी-न- कभी होता ही है – तो सभी को आमंत्रित करते हुए धार्मिक मंत्र-तंत्र-जप-जाप्य के आडंबर के साथ अगली परीक्षा के लिए शाही ठाठ-बाट के साथ उन्हें रखा जाता है। संपूर्ण राज्य के प्रमुख अधिकारी अर्थात् पुरोहित भिक्षुक वर्ग को एक साथ बुलाया जाता है तिब्बत में राज्याधिकार धर्माधिकार से भिन्न है ही नहीं। अतः सभी राजकीय अधिकारी प्रायः भिक्षुक वर्गीय ही होते हैं। भिक्षुओं की सेना भी होती है। उन सारे प्रमुख भिक्षु वर्ग को पोथी-पुराणांतर्गत शकुनादि शंकाओं का समाधान होकर यदि कोई बालक दलाई लामा के लक्षणों से युक्त सिद्ध हो जाए तो तुरंत ‘ श्री दलाई लामा’ मिल गए इस तरह संपूर्ण राज्य भर में घोषित किया जाता है। गाँव-गाँव आनंदोत्सव आरंभ होता है।
परंतु प्रत्येक दलाई लामा के देह त्याग के पश्चात् पुनर्जन्म लिया हुआ बालक वयस्क होने तक जो कई बरसों का समय व्यतीत होता है-उसमें राज्य व्यवस्था किसके हाथों सौंपी जाती है? क्या उसके हाथ में, जो प्रकट योग्यता से राज्य का भार वहन करने में समर्थ होता है? जी नहीं। वह प्रश्न भी दैविक, धार्मिक, अंधश्रद्धालु कसौटी से हल किया जाता है। चेकयांग के आदेशानुसार अथवा अवलोकितेश्वर की मूर्ति के सामने चिट्टियाँ डालकर जो ईश्वरीय आदेश प्राप्त होगा उसके अनुसार उस व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है तब तक जब तक उस दलाई T लामा बालक की खोज पूरी नहीं होती अथवा जब तक वह वयस्क नहीं होता।
अच्छा, दैविक आदेशानुसार दलाई लामा अथवा राज्यपाल की नियुक्ति करने की मूर्खतापूर्ण घटना के कारण षड्यंत्र कुचक्रों पर, घूसखोरी पर नियंत्रण किया जा सकता है? ऐसे कई माँ-बाप आगे आते हैं जो इस बात का असत्य दावा करते हैं कि ठीक उसी क्षण अपने बालक का जन्म हुआ जिस क्षण दलाई लामा ने देहत्याग किया। जो दो अथवा दस बालक संपूर्ण राष्ट्र में उसी क्षण जन्म लेने का दावा किया जाता है उनमें से अपने-अपने हित संबंधी पक्ष यह सिद्ध करने के लिए कि अपना हो पुत्र खरा पुनर्जात दलाई लामा है-किसी भी भले-बुरे मार्ग को स्वीकार करके टंटे-बखेड़े पर उतरते हैं। चिट्ठियाँ डालना चालाकी भरा होने से अथवा इस संदेह से कि पुजारी का कथन असत्य है अथवा वह व्यक्ति जिसके शरीर में चेकयांग देवता का संचार हुआ है पक्षपाती अथवा मिथ्याचारी है इस तरह का आक्षेप उठाया गया तो पक्ष-विपक्ष मगरूर बनते हैं- यादवी युद्ध बरसों चलते रहते हैं।
तिसपर पुनर्जन्मवाद का ईश्वरीय आदेश लेने जैसी अत्यंत मूर्खतापूर्ण पद्धति का स्वीकार करने के कारण क्या तिब्बत के प्रशासक दलाई लामा एक से एक बढ़कर अतुल पराक्रमी तथा महाबुद्धिमान् प्रशासक के रूप में अवतीर्ण हुए? प्रत्यक्ष अनुभव से यह निश्चित हुआ? क्या ईश्वर द्वारा निर्वाचित ये प्रशासक अन्य देशों के अधिशासकों से जो प्रकट गुणरूपों के कारण मनुष्य निर्वाचित है- अधिक सफल राज्यकार्य धुरंधर सिद्ध हुए? निश्चित रूप में नहीं। इसके विपरीत हो हुआ। ईश्वर के आदेशानुसार जिन दलाई लामाओं को तिब्बत की धर्ममूढ़ राज्य घटना के अनुसार आज तक अधिशास्ता के रूप में नियुक्त किया गया, उनमें एक भी दलाई लामा पराक्रम में उस चमार पुत्र स्तालिन अथवा लुहार पुत्र मुसोलिनी के सामने पासंग भी नहीं है। उनके जैसा राज्यकार्य धुरंधर नहीं निकला। इसके विपरीत स्तालिन, मुसोलिनी समान जो प्रकट गुणों से राज्य के अधिशास्ते बने जो तलवार – के तेजस के सामने ये ईश्वर के नाम पर निर्वाचित दुर्बल दलाई लामा तथा उनके राज्यदंड ऐसे चौंधिया गए हैं जैसे सूरज के सामने उलूक ये ईश्वर के प्रतिनिधि दलाई लामा जिस पर सतत राज करते हैं वह सदियों से चीन के सम्राटों का दास बन गया है। स्तालिन के—जो ईश्वर को भी नहीं मानता था तथा बचपन में स्वयं जूतों की सिलाई करके उन्हें बेचकर अपना पेट पालता था— प्रकट कर्तृत्व से उसका रूस राष्ट्र आज विश्व का प्रबलतम राष्ट्र बन चुका है। उस लुहार के बच्चे को सेनाधिपति तथा प्रशासक के रूप में नियुक्त करनेवाला इटली जैसा बलवान राष्ट्र देखिए। और धर्म प्रमाण तिब्बत का यह सीकिया पहलवान देखिए, जिसने अपने राज्य के सर्वाधिकार उस दलाई लामा के हाथों सौंपे हैं।
तिब्बत का संविधान जितना मूर्खतापूर्ण उतना ही उनका राष्ट्रीय सेना संविधान भी वाहियात है। वाहियात का अर्थ है- अंधश्रद्धालु आचार तथा मंत्र-तंत्र, जारण- मारण, जादू-टोने के जंजाल में उलझा हुआ। दलाई लामा प्रमुख सेनापति व सारे भिक्षु सैनिक होते हैं—उसके अधिकार के नीचे आए हुए जो शताधिक मठों में मंत्र-तंत्र के पूजा-पाठ में आजीवन पगे हुए हैं। बाबा आदम के समय के खड्ग तोमर, त्रिशूल, परशु (फरसा) — ये आयुध कुछ नवीनतम भयंकर शस्त्र हैं। मुँह द्वारा बारूद ठूसनेवाली तोड़ेदार बंदूक (पलीता दागकर छोड़ी जानेवाली बंदूक) नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वेषधारी तथा इस तरह के शस्त्र लिये हुए भिक्षु युद्ध पुकारते ही रणभूमि पर उतरते हैं।
आपका मन दया से भर जाएगा कि इन भिक्षुओं का सेनाबल अर्वाचीन रूस की लाल सेना के सामने अथवा ब्रिटिशों की तोपों के सामने कैसे टिक पाएगा, तो आपकी अंधश्रद्धा पर तिब्बत का देवसेनानी दलाई लामा भी दया किए बिना नहीं रहेगा। क्योंकि उसका यह केवल सेनाबल देखकर ही आप चकमा खा गए। परंतु इस मानवी सेनाबल के पीछे स्थित तिब्बत का जो दैवी आत्मबल है उसे यदि आप देखेंगे तो आप भी दाँतों तले उंगली दबाएँगे और कहेंगे-रूस ही क्यों, रूस का भगवान् भी आ जाए तो उसकी तिब्बत के सामने दाल नहीं गलेगी। वह दैवी शक्ति है-इस सेनाबल के पीछे-पीछे आ रहा यह हजारों भिक्षुओं का दलभार देखो। देखे नहीं उनके पास दो ऐसे अमोघ शस्त्र हैं जिनके सामने किसी भी प्रकार की तोपों, बम, विषैली वायु अथवा हवाई जहाजों की एक न चलेगी।
मानवी सेना के पीछे-पीछे तिब्बत की देवी सेना चलती है, उनमें से सैकड़ों भिक्षु वीर मुख से नानाविध सैनिक मंत्रों का संघशः जोर-जोर से पठन करते हैं। उन मंत्रों से अभिमंत्रित ताबीज, गंडा, धागे सैनिकों के गले में, दंडों पर, हाथों पर, छाती पर अभेद्य कवच की तरह जकड़े हुए होते हैं। जिस तरह हमारे यहाँ सर्वारिष्ट शांति प्रीत्यर्थ अन्य कुछ करने की अपेक्षा अधिक बल किसी कोने में धधकते यज्ञकुंड के हवन पर डालना पर्याप्त होता है उसी तरह ऐसे युद्धों में विजय प्राप्ति के लिए प्रत्येक मठ में नानाविध तंत्र साधन चलते हैं। मृत्यु तथा उच्चाटन के भयंकर मंत्र का लाखों बार आवर्तन करते हुए शत्रुसेना की प्रतिमा पर इस मंत्रित जल की तथा मुट्ठियों की बौछार सतत की जाती है। उसी तरह हजारों भिक्षुओं का दल, जो भूत-प्रेत तथा शत्रुओं को भगाने के लिए सहस्राधिक छोटे-बड़े घंटाओं का ! सतत नाद करते हुए तथा उस तुमुल घंटानाद से दश दिशाओं को कंपित करता है उस मानवी सैनिक बल को दैविक आत्मबल पुष्टि देता हुआ रणभूमि पर चलता है सो अलग।
यह सत्य है कि जापान ने यूरोप की जोड़ की तोड़ के रूप में तोप से तोप, बम से बम, हवाई जहाज से हवाई जहाज भिड़ाया; परंतु जापान के लिए यह कार्य अनिवार्य था। क्योंकि भई, उनके पास ऐसे घंटे ही कहाँ थे जो भूतों को भगाते। अब तिब्बत के सामाजिक स्वरूप की कल्पना का आकलन करने के लिए
उसकी दो-तीन विशेषताएँ बताते हैं-
पहली महत्त्वपूर्ण तथा अभिनंदनीय बात यह है कि तिब्बत में जाति भेद बिलकुल नहीं है। सभी लोग फिर चाहे वह भिक्षु हो या गृहस्थ, धनवान हो या निर्धन, एक ही जाति के समझे जाते हैं। अर्थात् उनमें जन्मजात अछूत कोई नहीं। रोटीबंदी नहीं, बेटीबंदी भी नहीं। वे सारे बुद्धधर्मी होने पर भी मांस, अंडों का भक्षण करते हैं। आजकल हमारे यहाँ भी जो अहिंसकों का एक पंथ निकला है- वह भी इसी तरह मनोवाक्कायशः अहिंसा की जय-जयकार करते-करते ही सभा-गोष्ठियों में निस्संकोच भाव से एक-दूसरे पर अंडों की बौछार करते हैं- ऐसा ही कुछ यहाँ भी है।
तिब्बत में एक पारिवारिक विशेषता यह है कि एक स्त्री के एक ही समय में अनेक पति हो सकते हैं। भूटान में, नेपाल की कुछ हिंदू जातियों में और तिब्बत में भी बहुपतित्व की रूढ़ि आज भी है। लाख समझाने के बावजूद भी वे नहीं मानते कि इसमें कुछ अनीति, अधर्म है जिस तरह हमारे यहाँ एक पुरुष की एक ही समय अनेक भार्याओं का होना यह एक स्मृतिमान्य शिष्टाचार की बात है, न कि अधर्म, उसी तरह वहाँ एक ही स्त्री के एक ही समय अनेक पति होना एक रूद्ध परंपरा है-अधर्म तो निश्चित नहीं तिसपर विशेष यह कि परिवार में यदि अनेक भाई हैं और एक ही भाई का ब्याह हुआ तो उसकी पत्नी अन्य सभी सगे बंधुओं की धर्मपत्नी ही समझी जाती है। इस रूढ़ि को वे रत्ती भर भी अनीति अथवा अधर्म नहीं समझते। इसके विपरीत एक भाई केवल अपने लिए ही एक पत्नी ब्याहकर ले आए और उसके भाइयों के अनब्याहे रहते हुए यह स्वयं केवल अकेले ही दांपत्य जीवन के सुख का भोग करे, स्वार्थी प्रवृत्ति का प्रदर्शन करे, तो इसको वे नीच कर्म समझते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने ऐसे ही परिवार के कुछ सदस्यों से कहा था, ” अपने भाई की पत्नी से इस तरह व्यवहार करना अनैतिक है। भातृभार्या को माता समान मानना ही मनुष्य धर्म है।” तब उन लोगों को आश्चर्य हुआ। उस समय जिस तरह उन्होंने विवेकानंद को टोका उसी तरह उन सभी का जो उनपर हँसते हैं- उपहास करते हुए टोकते हैं, “तो फिर क्या हम कोखजाए बंधु की वंचना करते हुए उन्हें उस सुख का हिस्सा न देते हुए अकेले ही दांपत्य सुख का भोग करें ? हम भाई-भाई मांस, मक्खन, घर, धन बाँटकर लेते हैं, किसी भी सुख का स्वार्थी बनकर अकेले ही भोग नहीं करते, ऐसा करना सगे भाई से छल-कपट करना समझते हैं तो फिर इन सभी ऐहिक सुखों में अत्यंत सरस तथा स्नेहमय जो नई-नवेली दुल्हन की प्राप्ति का सुख है, उसका हिस्सा तो उन्हें देना ही होगा न ? भई, पत्नी केवल एक ही भाई हड़प करे, यह तो केवल नीचता होगी। इस तरह का स्वार्थी उपदेश हमें मत करो जो भातृप्रेम के लिए कलंक है, धब्बा है। इस तरह का धर्म हम कदापि नहीं मानेंगे।”
भूटानी लोगों ने विवेकानंद को इस तरह जो उत्तर दिया, आज भी तिब्बती लोग दृढ़ स्वर में जो कहते हैं, ऐसा नहीं कि वह उनके जैसे ‘भूत’ अथवा झक्की लोग ही कलियुग में कहते हैं। कलियुग प्रारंभ होने से पहले जब अर्जुन ने द्रौपदी का वरण किया था, तब यह समस्या प्रत्यक्ष धर्मराज के सामने खड़ी हो गई कि द्रौपदी को उस अकेले की पत्नी समझा जाए या नहीं। महर्षि व्यास ने भी इसका उत्तर ऐसे ही तर्कों से समर्थन करते हुए दिया है। इस छोटे से गाँव में संदर्भ ग्रंथ उपलब्ध न होने के कारण लेखों से संदर्भ उद्धृत करने में बहुत कठिन होता है। अन्यथा महाभारत के मूलभूत श्लोक यहाँ ज्यों-की-त्यों उद्धृत करना आवश्यक था। मूल महाभारत के द्रौपदी स्वयंवर के अध्याय के श्लोक जिज्ञासु अवश्य देखें। कुंती प्रभृति ने धर्मराज को स्पष्ट किया कि कुरुवंश में द्रौपदी का प्रश्न खड़ा रहने से पूर्व भी अनेक बंधुओं का एक ही भार्या रखने की प्रथा एक शिष्टसम्मत कुलाचार था – इसके प्राचीन उदाहरणों का भी उल्लेख किया गया है। इस तिब्बत में प्रचलित इससे भी विचित्र रूढ़ि है जो रोंगटे खड़े कर देती है- वह यह है कि यदि किसी पिता की पत्नी की मृत्यु हो जाए और उसके ज्येष्ठ पुत्र का ब्याह हो जाए तो उसकी वधू को भी पिता की पत्नी ही माना जाता है। इसके विपरीत यदि किसी विधवा ने ब्याह रचाया तो उसकी अपने पूर्व पति से हुई सभी युवा पुत्रियाँ भी अपनी माता के साथ उसके नए पति की पत्नियाँ बन जाती हैं और कन्याएँ तथा वह माता स्नेहमयी सौतन के नाते सुख से रहती हैं।
जो हमें अत्यंत घिनौनी, अनैतिक तथा अधर्म प्रतीत होती है वह रूढ़ि या प्रथा अथवा आचार विश्व के आरंभ में ईश्वर ने ‘धर्म’ के रूप में संपूर्ण मानवजाति को कथन की है – इस तरह तिब्बत के सनातन जनों की दृढ़ निष्ठा है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न समाज में प्रचलित धर्म, रूढ़ि तथा शिष्टाचार के तुलनात्मक अध्ययन से इस तथ्य का सहज बोध होता है कि नीति, अनीति जैसी बातें चतुष्कोण अथवा त्रिकोण की तरह निश्चित साँचे में ढली, एक छापी, त्रिकालाबाधित होती हैं अथवा हमारे कुरान में अथवा पुराण में जो अच्छा अथवा बुरा कहा गया है-वही सभी परिस्थितियों में संपूर्ण मनुष्य समाज में भला अथवा बुरा सिद्ध होना ही चाहिए यह हठधर्मिता कितनी प्रमादशील है। हमें जो आचार शुद्ध या हितकारी प्रतीत होता है, हम उसका आचरण करें; परंतु वही एकमेव सनातन, त्रिकालाबाधित, ईश्वरोक्त ‘धर्म’ है और अन्य सभी परिस्थितियों में उसे मानना ही चाहिए, वह हितप्रद होना ही चाहिए, वह अपरिवर्तनीय धर्म होना ही चाहिए – इस प्रकार धर्मांध दुराग्रह न करें।
जिन भगवान् बुद्ध ने देहदंड आसुरी तपों का तीव्र निषेध किया उन्हीं बुद्ध के धर्म की भिक्षु दीक्षा देते समय तिब्बत में भिक्षुगणों को जो संस्कार करने पड़ते हैं वे किस तरह बुद्ध के उपदेश की मूर्तिमंत विडंबना होते हैं- इसका भी उदाहरण कथन करते हैं-
एक यात्री जिसने प्रत्यक्ष इस संस्कार को देखा है, लिखता है-‘ प्रभात की वेला – ब्राह्ममुहूर्त! भिक्षुगण, जो तपस्याव्रत ग्रहण करने के लिए तैयार हैं, सुस्नात होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करके आ गए। शाक्यमुनि की विशाल मूर्ति के सम्मुख मंत्रोच्चार आरंभ हुआ; कभी एकाकी, कभी सारे मिलकर ऊँचे स्वर में मंत्रघोष करने लगे। लकड़ी के बड़े-बड़े ढोल भी बजने लगे। लगभग सत्तर भिक्षुगण घुटने टेककर श्रद्धांजलि देकर दीक्षा के लिए तैयार हो गए। मोम, कोयला, स्याही की शीशियाँ आदि सामग्री एक ओर रखी गई थी। उन्होंने चटाई पर बैठकर लकड़ी को लंबी चौकी पर हाथ रखे। प्रधान भिक्षुगण ने प्रत्येक दीक्षेच्छु के मस्तक पर स्याही के बारह बाहर चिह्न बनाए। धूप, अगरबत्तियाँ जलाई गई। सभी ने मिलकर प्रार्थना आरंभ की। ‘नमो पेनशितो शिः किया मौनी फूः।’ हे शाक्यमुने, तुम्हें प्रणाम हम आपकी शरण में आए हैं। इस मंत्र के उद्घोष से सभी जन तन्मय हो रहे थे कि प्रधान भिक्षुओं ने उन दीक्षेच्छुओं के चैंदिया (सिर का मध्य भाग) पर अंकित उस स्याही के चिह्नों पर जलते अंगारे रखना आरंभ किया। डेढ़-दो मिनट के अंदर चंदिया की चमड़ी तक जलते कोयलों की आग पहुँच गई। आँच से जलन होने लगी तो वे अधिक बल लगाकर ऊँचे स्वरों में मंत्र पाठ का उद्घोष करने लगे। मस्तक की चमड़ी जलने लगी। जो धीर-गंभीर थे वे चौदया जलने लगने पर भी ‘उफ’ तक न करते हुए बार-बार मंत्र पठन कर ही रहे थे, ‘नमो पेनशितो शिकिया मौनी फूः।’ परंतु जो दाह सह नहीं सके वे छटपटाने लगे। यह देखते ही प्रधान भिक्षुओं ने उन प्रत्येक दीक्षेच्छुओं के मस्तक अपने हाथों से कसकर पकड़कर उसे हिलने-डुलने नहीं दिया। इधर-उधर सर्वत्र चमड़ी जलने की उम्र दुर्गंध फैलने लगी। वह दीक्षा संस्कार तब तक चलता रहा था जब तब प्रत्येक के मस्तक पर रखे निश्चित अंगारे जलकर राख नहीं बने। इस प्रकार प्रत्येक के मस्तक पर बुद्ध शरण की वह तप्तमुद्रा आजीवन के लिए ठुक गई- दागी गई।
बुद्ध के शिष्यों ही जो स्थंडिल पर यज्ञाग्नि प्रज्वलित करने के कार्य को खिल्ली उड़ाते थे मनुष्य के मस्तक पर यज्ञाग्नि के अंगारों से इस प्रकार अनजाने मैं बुद्ध से प्रतिशोध लिया।
– वीर सावरकर
संदर्भ – समग्र सावरकर वांग्मय 8 , पृष्ठ – ४८४