Home Article साधु-संतों के चित्रपट किस प्रकार देखें?

साधु-संतों के चित्रपट किस प्रकार देखें?

“ महाराष्ट्र में साधु-संतों के चित्रपटों की ऋतु सदैव फली फूली रहती है। उन चित्रपटों को देखने हजारों स्त्री-पुरुषों का समाज उपस्थित रहता है यह स्वाभाविक है।
ये चित्रपट देखने पर उनसे होनेवाले लाभ और मनोरंजन प्राप्त करके भी, यदि असंगत दृष्टि से उन्हें देखें तो समाज की जो अपरिमित हानि होनेवाली है, उसे यथासंभव किस प्रकार टाला जा सकता है, उसके संबंध में कुछ सूचनाएँ दिग्दर्शनार्थ दे रहा हूँ।
साधु-संतों के चित्रपट आज कैसे देखने चाहिए यह सूचित करते समय साधु संचित चरित्र ही कैसे पढ़ने चाहिए, कैसे मनन करना चाहिए – यह बताना होगा।
संतों के चित्रपट देखते समय प्रमुख बात जो ध्यान में रखनी चाहिए वह यह है कि वे चरित्र ऐतिहासिक नहीं हैं अपितु दोनों अर्थ से ‘चामत्कारिक’ हैं। संतों के जो चरित्र आज उपलब्ध हैं, वे जैसे हैं वैसे यदि बने रहे हैं तो, और आज तक जीवित रखे हैं यह महिपति के समान संतचरित्रकार के उपकार ही हैं।
उस समय के समाज की भाव-भावनाएँ कैसी थीं यह सामाजिक इतिहास का ही एक भाग है, उसे भी उन्होंने प्रयास से जीवित रखा है। परंतु उसके पीछे उस चरित्र में ऐतिहासिक सत्य क्या है यह निश्चित रूप से बताना बहुत कठिन हुआ है। इतना ही नहीं अपितु आज उपलब्ध चरित्रों के संबंध में यदि कुछ निश्चित बताया जा सकता है तो यह कि वे चरित्र भोली कथाओं से और अनैतिहासिक प्रमादों से पूरी तरह भरे हुए हैं। पुनः बात यह है कि पुराने ऐहिक बखरी का वृत्त जाँचने के अन्य साधन भी संत विजय, भक्ति विजय आदि दैविक ग्रंथों को कसौटी पर परखने के लिए सर्वथा अपर्याप्त पड़ते हैं। संत अधिकतर स्वभावतः व्यवहार-विमुख होते हैं, अनेक ऐसे कि उनके द्वारा लिखी किसी घटना की या पत्राचार की एक अंगुली भर चिट्ठी भी कभी भेजी नहीं गई हो।
दूसरे साधन का विदेशी इतिहास में उल्लेख होता है। हमारे राजनीतिज्ञों के संबंध में विदेशी लेखन में भरपूर उल्लेख मिलते हैं, फिर भी ज्ञानेश्वर, एकनाथ, नामदेव, तुकारामादि संतों के संबंध में तो क्या, किंतु रामदास, ब्रोंद्र के संबंध में, जो उल्लेख उनके चरित्र खोजने हेतु उपयुक्त हो सकते हैं ऐसे उल्लेख मिलना भी संभव नहीं होता। मुसलमान बादशाहों को परेशान करने के ‘चमत्कार’ उन संतों के चरित्र में कई बार आते हैं। परंतु उनका अता-पता भी मुसलमानी, अंग्रेज, डच, फ्रेंच इनके समकालीन लेखन में नहीं मिलता। मुसलमान अथवा यूरोपियनों को हमारे संतों द्वारा किए हुए पराभव कदाचित् लज्जास्पद लगते, इसलिए उनके लेखों में उन घटनाओं का उल्लेख नहीं है ऐसा कहें तो हिंदू वीरों ने मुसलमानों को संग्राम में कई बार पराजित किया, उसके उल्लेख विदेशी इतिहास में भरपूर मिलते हैं। तुकाराम के कीर्तन प्रसंग में शिवाजी राजे उपस्थित थे। उन्हें पकड़ने के लिए उस कीर्तन समूह को ही घेर लिया गया। तुकारामजी ने अपनी भक्ति से चमत्कार दिखाया और मुसलमानों को सर्वत्र शिवाजी ही शिवाजी दिखने लगे। इस गड़बड़ी में शिवाजी राजे वहाँ से निकल चुके थे। यह तुकाराम का चमत्कार मुसलमानों ने अपमानजनक मानकर अपने इतिहास में नहीं लिखा ऐसा मान लिया जाए तो शिवाजी राजे औरंगजेब को चकमा देकर आगरा के लाल किले से भागे – यह प्रसंग मुसलमानों के पराभव का होते हुए भी उनके इतिहास में लिखा है।
संतों के चमत्कार संताजी के चमत्कार के समान विदेशियों को सत्य नहीं लगे या सही नहीं थे। उन्हें वे तुच्छ लगे। इसलिए विदेशियों ने संतों के चमत्कार का ही नहीं उनके अस्तित्व का भी महत्त्वपूर्ण उल्लेख कहीं अधिक नहीं किया। ऐसा कहिए या न कहिए, परंतु उल्लेख नहीं है इस बात को नकारा नहीं जा सकता। इसलिए संतों के चरित्र को खोजने का वह साधन भी बिलकुल उपलब्ध नहीं है।
संतों के स्वयं के ऐहिक पत्र व्यवहार या लेख, स्वयं के संबंध में परकीय शत्रु-मित्रों के उल्लेख ये दोनों ऐतिहासिक साधन नहीं के बराबर होने की कठिनाई होते हुए तीसरी महत्त्वपूर्ण कठिनाई यानी उनके संबंध में इतिहास संशोधकों को महिपति आदि चरित्रकारों द्वारा लिखित सुसंगत या विसंगत जानकारी है। अन्य पुरुषों की ऐहिक दृष्टि से लिखित बहुत सी बातें उनके वर्णन की विसंगति से कभी-कभी तत्काल सच-झूठ तय हो जाती हैं। मान लें, किसी बखर में ऐसा वर्णन आया कि चिमाजी अप्पा के वसई पर कब्जा करते ही बड़े शिवाजी महाराज ने उन्हें रायगढ़ पर बुलाया और उनका गौरव किया कि ‘पुर्तगीजों का बदला लेकर तूने परशुराम क्षेत्र में धर्म की रक्षा की।’ इतना ही नहीं अपितु उन्होंने श्रीपतराव का प्रधान पद छीनकर चिमाजी अप्पा को दिया। तो इस वाक्य की विसंगति स्थल, काल, पात्र की दृष्टि से तुरंत सिद्ध की जा सकती है। शिवाजी महाराज यानी शाहू महाराज होने चाहिए, ऐसी कुछ गलती निकालकर और उसे सुधारकर उस विसंगति में भी सबूत के रूप में सत्य चुन लिया जा सकता है। क्योंकि ये चरित्र साधारणतः ऐहिक बुद्धिवाद के मानुषीय तर्क के विषय होते हैं यह सबने माना है। परंतु संतचरित्र का मूल गृहीत (aximotic assumption) आध्यात्मिक, दैविक, अतिमानुषीय होता है। जो घटना जितनी अधिक विसंगत, उतनी ही वह अधिक संग्राह्य। ‘चमत्कार’ न हो तो वह संतचरित्र कथन करने योग्य नहीं। इसलिए चरित्र की घटनाएँ दैविक एवं आध्यात्मिक भाषा में तर्कातीत यानी ऐहिक एवं बौद्धिक भाषा में तर्कशून्य होगी। ये संतचरित्र यानी साधारणतः असंभव अलंकारों के उदाहरण होते हैं। मान लीजिए उपर्युक्त उल्लेखानुसार शिवाजी महाराज चिमाजी अप्पा से मिले या श्रीपतराव का प्रधान पद चिमाजी अप्पा को दिया गया जैसी अस्त-व्यस्त बातें यदि संतचरित्र में हो कि श्रीधरस्वामी को ज्ञानेश्वर महाराज मिले और उनका पांडव प्रताप ग्रंथ ज्ञानेश्वर पढ़ने बैठे या महिपति के अध्याय नामदेव ने लिखे तो ऐतिहासिक दृष्टि से स्पष्टतः ऐसे विसंगत विधान गलत हैं, ऐसा भक्ति पंथियों का समझाना भी असंभव है। क्योंकि स्थल-काल, संभवासंभव आदि उपर्युक्त मानुषीय तर्कों की कसौटी उन्हें बिलकुल लागू होती ही नहीं। यह तो उस संतचरित्रकार की आशा और अशंकनीय गृहीत (Axiom) है। वे कहेंगे, ‘ज्ञानेश्वर की योगसिद्धि ही वैसी थी या विट्ठल को असंभव क्या हो सकता है ?’ विट्ठल ने नामदेव का मिलन श्रीधर से, या नामदेव का मिलन महिपति से करा दिया। इस प्रकार के बहुत से अनैतिहासिक उदाहरण उन संतचरित्रों में दिखाई देते हैं।’ अलौकिक सिद्धि’, ‘नाम प्रताप’, ‘ईश्वर कार्य’ इस प्रकार तर्कातीत यानी ऐतिहासिक भाषा में तर्कशून्य मान्यताओं के कारण संतचरित्र संबंध की इतिहासात्मकता स्पष्ट रूप से निकालना और पटाना, इतिहास संशोधन का जो आंतरिक सबूत का तीसरा मान्य साधन, उसकी सहायता से भी कठिन होता है। केवल हिंदू का ही नहीं अपितु जो- जो संत वाड्मय क्रिश्चियन, मुसलिम, यहूदी आदि धर्मछाप का है उन सब पर यह बात लागू होती है।
अनेक ‘चमत्कार’, लाक्षणिक भाषा को ही सत्य मानने के कारण चमत्कार बनकर सबकी चर्चा का विषय बनते हैं। किसी भी परंपरागत संशोधन के साधन से परीक्षा न कर सकने से आज उपलब्ध समस्त संतचरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से कभी भी जैसे-के-तैसे सही नहीं माने जा सकते। यह बात और एक उदाहरण से सिद्ध हो सकती है। इन चमत्कारों में अनेक ‘चमत्कार’ केवल लाक्षणिक वर्णन से शब्दशः सही समझनेवाली भक्त मंडली की कल्पनाओं का प्रपंच होते हैं। संत की भावना होती है कि सबकुछ भगवान् करते हैं। उनकी वृत्ति निरहंकारी। जो स्वयं किया उसे स्वयं का न बताना, भगवान् ने किया ऐसी भाषा, उस भावना का लाक्षणिक अर्थ लगाना, उनकी रीति होती है। श्रीधरस्वामी रामविजयादि ग्रंथ लिखते समय या पतिभक्तिविजय लिखते समय बार-बार कहते हैं, “मैं मंदमति हूँ, ग्रंथ रचना कैसे करूँगा? परंतु पांडुरंग ने कलम हाथ में दी और कहा, लिखो। इस प्रकार उसने जैसा कहा वैसा लिखा।’
संतों के अभंगों में, ओवी में, ग्रंथों में यह भाषा उपर्युक्त लाक्षणिक अर्थ में आती थी, परंतु उनके बाद के भक्तगण उस भाषा को शब्दशः वस्तुस्थिति समझकर प्रत्यक्ष पांडुरंग भगवान् का अवतार हुआ, कलम उठाकर उन्होंने संत के हाथ में दी और संत जैसा कहते थे वैसा पांडुरंग लिखते थे। उसी प्रकार पांडुरंग स्वयं कहते थे और संत लिखते थे आदि। संत कीर्तन करते थे तो हनुमान उनके पीछे खड़े होकर साथ देते थे मानो हनुमानजी स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप से खड़े होते थे। इस प्रकार के वर्णनों की संतचरित्रों में अधिकता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी विभिन्न कीर्तनकार उस वर्णन को अधिकाधिक आकर्षक बनाते हैं। परिणामस्वरूप लाखों भक्तजन उस ‘चमत्कार’ को अक्षरशः प्रामाणिक मानने लगे। संतजन ऐसा भी कहते थे कि सोना और मिट्टी दोनों हमें समान हैं। या वे कहते थे कि वैराग्य का पारस पत्थर उनके हाथ लगा है अब लोहे को वे सोना बना सकते हैं। और सोना भी पत्थर हो सकता है। रामकृष्ण परमहंस की एक साधना इस प्रकार थी कि वे एक हाथ में सोना और दूसरे हाथ में मिट्टी लेते थे। उन चीजों को एक-दूसरे हाथ में इतनी गति से बदल लेते थे और कहते जाते थे कि ‘सोना माटी माटी सोना’। तब तक वे यह कहते जाते थे जब तक उनके यह ध्यान में भी नहीं आता था कि किस हाथ में सोना है और किस हाथ में मिट्टी सोना को मिट्टी और मिट्टी को सोना कह देते थे। परंतु इस प्रकार के प्रखर वैराग्य के लाक्षणिक शब्दों को संत जो कुछ कहते थे उसे हो बाद में संत चरित्रकार, भक्तगण, कीर्तनकार शब्दश: सत्य मानकर और उस हिसाब से रंग देकर अनेक चमत्कार करके बताते थे। जैसे सही-सही मिट्टी का फलाने संत ने सही सोना बना दिया; संत नामदेव ने अपने हाथों से जो पत्थर उठाए वे पारस बन गए; पारस जिन्होंने स्वार्थ से अपनाए वे पुनः पत्थर हो गए आदि प्रकार के चमत्कार इस श्रेणी के थे।
विपरीत स्थिति में, लाक्षणिक अर्थ में कही गई घटना भी चमत्कार बनती है। यह है दूसरी श्रेणी संत तुकाराम की मोटे पुट्ठों की अभंगवाणी को चौपड़ियाँ सरिता के जल में डुबोने पर फूलकर ऊपर आ गई यह एक साधारण बात है। इस बात को लेकर संत तुकाराम जैसे निरहंकारी श्रद्धालु भक्त ने स्वाभाविक रूप से कहा कि ‘विट्ठल ने मेरी अभंगों की चोपड़ी लौटा दी।’ बस, यही भावना प्रबल होकर, लाक्षणिक अर्थ में रंगकर बताने के बाद आज उसकी एक अद्भुत कथा हो गई है। एक सरल घटना दैवी चमत्कार बन गई। दामाजी पंत के कथानक को भी ऐसी ही बात थी। कागज पत्रों के आधार पर इतिहासाचार्य राजवाडे ने यह सिद्ध किया है। दामाजी पंत के दंड की राशि किसी बिठू हरिजन ने जमा कर दी और दामाजी पंत को बंदीगृह से मुक्त कराया। यह सत्य सरल बात है, परंतु इस हरिजन का नाम बिटू था और दामाजी पंत तो थे संत। इसलिए भाविक लोगों ने बिठू को चलने-बोलनेवाला विट्ठल बना दिया। और यह बात ही बाद में चमत्कार बन गई। सही नाम पर श्लेष करके उस आधार पर अद्भुत चमत्कारों की रचना करना, केवल काल्पनिक कथाएँ बताना यह चमत्कारों का तीसरा प्रकार है।
जाट एक जाति का सही नाम है, उसपर श्लेष करके एक अद्भुत कथा रची गई कि महादेव की जटा से उत्पन्न हो गए इसलिए नाम जाट पड़ा। नाई का नाम नाभिक ऐसी कल्पना करते ही उसपर तर्क किया गया कि वे ब्रह्मदेव की नाभि से जनमे थे। ब्राह्मण मुख से और क्षत्रिय बाहू से जनमे। इस सुंदर रूपक को शब्दशः सही मानने की मूर्खता इतना ही नाई नापिक नाभिक ये ब्रह्मदेव की नाभि से प्रकट हुए यह विश्वास भी मूर्खता का है। कर्ण के नाम पर श्लेष हुआ और तुरंत इसका एक चमत्कार बन गया कि कर्ण कुंती देवी के कर्ण (कान) से जनमे थे इसलिए उसका नाम ‘कर्ण’ रखा गया था। जैसे अलौकिक पुरुषों का जन्म भी अलौकिकता से हुआ तो ही शोभा देता है, इस भोले आदर के कारण अनेक महापुरुषों को ईशसंभव या अयोनिसंभव की कल्पना करने की ओर सामान्य जनों का अधिक झुकाव दुनिया में सर्वत्र दिखाई देता है जीसस बढ़ई का लड़का नहीं, वह कुमारी मेरी के ईश्वरीय गर्भ से हुआ, यह ख्रिस्त कथा देखिए! वही बात नामदेव की! श्रीनामदेव अलौकिक संत, इसलिए उनका जन्म भी अलौकिक होना चाहिए। यह खोज करने का कोई साधन ? हाँ, वे दरजी थे न ? अर्थात मराठी में शिंपी यानी सीप या सीपी। पुराण कथाओं के समान यहाँ भी शिंपी का अर्थ सीप में या सीप से उत्पन्न ऐसा लगाया गया और नामदेव की जन्मकथा भी गढ़ दी गई। नामदेव के माता-पिता को एक दैवी सीप मिली। घर पर लाकर देखते हैं तो उसमें एक अद्भुत बालक। इसलिए नामदेव को ‘शिंपी’ (सीपी) कहते हैं।
चमत्कारों का एक चौथा प्रकार है। उसे नकल कह सकते हैं। सब एक जैसा कार्य। एक संत के शिष्य ने उसका एक चमत्कार बताया कि दूसरे संत के शिष्य ने वही चमत्कार अपने गुरु के चरित्र में जैसा का वैसा ही लिख दिया।
नामदेव ने मंदिर घुमाया, वैसी ही कथा गुरु नानक को मशीद से निकालकर बाहर भगाया तब मसजिद घूमने की कथा है। इसी प्रकार अन्य संतों की कहानियाँ बनती हैं। जनाबाई के पास पांडुरंग की दुशाला मिली, इसलिए पंडों ने उसपर चोरी का आरोप लगाया, उसे सूली पर चढ़ाने की सजा सुनाई गई। ऐसा ही संत चोखामेला के संबंध में हुआ है। उसके पास भी पांडुरंग का हार मिला, पंडों ने चोरी का आरोप लगाया, उसे बैलगाड़ी से बाँधकर मार डालने की सजा हुई। दोनों प्रकरणों में पांडुरंग दौड़ते हुए आए, उन्होंने भक्तों को छुड़ाया; परंतु पांडुरंग भक्तों पर इस जीव को बेचैन करनेवाला और उनके रिश्तेदारों को उनके मृत्युदंड की सजा सुनकर भयंकर दुःख देनेवाला संकट क्यों लाता है ? इस प्रकार जान लेनेवाली विचित्र लीलाएँ करने की बुरी आदत पांडुरंग को लगी हुई है। यह वर्णन करते समय हम भगवान् को कितना उपद्रवी और निर्दयी बना रहे हैं, यह बात यह अद्भुत कथा बार-बार कहनेवाले भक्तजनों के और संतचरित्रकारों के ध्यान में नहीं आती।
उपर्युक्त नमूने के लिए सूचित सभी कारणों से, आज उपलब्ध संतचरित्र शब्दानुसार यथार्थ, ऐतिहासिक सत्य नहीं हैं अधिक-से-अधिक इसे हम एक ऐतिहासिक काव्य समझकर पढ़ सकते हैं। उनके (चित्रपट) तो एक केवल चामत्कारिक नाटक होते हैं और उन्हें इस एक ही भाव से देखना चाहिए।

संतचरित्र जैसे हैं वैसे ही पढ़ना चाहिए, चित्र सजाने चाहिए (h)

आज उपलब्ध संतचरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से, और वे पूर्ण रूप से सत्य हैं ऐसी अंधश्रद्धा से उन्हें देखना या पढ़ना टाल सकें तो फिर वे जैसे हैं वैसे चित्रित करने में कोई विशेष धोखा नहीं। हम तो ऐसा कहेंगे कि उन संतचरित्रों में जोड़- तोड़ करके, उनमें जो चमत्कार हैं उन्हें छोड़कर, उन भोले और साधुशील महात्माओं के यथार्थ स्वरूप को छिपाकर, उनके पुरानी भक्ति विजय और संतलीलामृत के नए संशोधित संस्करण निकालना एकदम गलत होगा, लुच्चेगिरी का और अरसिकता का द्योतक भी होगा। उनके उस भोले भाव के अद्भुत चमत्कारों के, झाँझ करताल के वातावरण में ही यह हमारी संतमंडली शोभा देती है। उन्हें आधुनिक बनाना उसका असहनीय उपहास (विडंबना) होगा। नामदेव-तुकाराम की वंदनीय और मोहक मूर्तियाँ उन पगड़ियों में, नामघोष में, तुलसी माला में, काला बुक्के में, उस अंगरखे में शोभा देती हैं। नामदेव को आज साइकिल पर बैठाना या तुकोबा को सूट-बूट पहनाना बुद्धि का पागलपन है। क्योंकि महिपति चरित्र में उस समय का जो वातावरण और भावनाएँ जिस प्रकार व्यक्त की गई हैं, वैसी व्यक्त नहीं हो सकेंगी और हम उसमें से कुछ छोड़ेंगे, कुछ रखेंगे। उस समय का समाज-दर्शन यथावत् कराना भी इतिहास का एक कर्तव्य है। महिपति आदि कवियों का काव्य भी इस अर्थ में एक इतिहास है।
दूसरी बात यह है कि संतों के इन चित्रपटों से या चरित्र से उस चमत्कारादि के वातावरण से अद्भुत रस का उत्कृष्ट सम्यक् पोषण हो सकता है। अद्भुत रस अत्यंत आस्वाद्य रस है। इसके लिए जिस दृष्टि से हम उपन्यास या हजार रातों की कहानियाँ पढ़ते हैं केवल उसी दृष्टि से उन चमत्कारों को देखना चाहिए।
तीसरी बात यह है कि संतचरित्र के बहुत से चमत्कार यद्यपि लाक्षणिक, अविश्वसनीय या बनावटी लगते हैं तो भी उनके कारण इन साधु पुरुषों की सही महानता को बाधा नहीं आती। क्योंकि संतों की सही महानता इन चमत्कारों में नहीं उनकी पवित्र वाणी में, ग्रंथों में और परोपकारी एवं उदात्त चरित्र में ही समाविष्ट है।
जब तक ज्ञानेश्वरी, तुकाराम, अभंग, एकनाथ, नामदेव आदि के अत्युदार चरित्र हमारी आँखों के सम्मुख हैं तब तक उनके संबंध में लगनेवाला आदर और पूजनीयता कम होने का डर नहीं। परंतु यदि वह आदर और पूजनीयता बुद्धिपूर्वक और यथाप्रमाण अनुभव करनी हो, तो उनके वे पुराने चरित्र जैसे थे वैसे ही रहने देना आवश्यक है।
इन सब कारणों से वर्तमान चित्रपटों में संतचरित्र जैसे हैं वैसे ही और उनके समय के अच्छे-बुरे, परंतु सही-सही वातावरण में चित्रित करने चाहिए।
किंतु संत कहते ही वह सर्वज्ञ या शक्तिमान या ईश्वर जिनके वचनों में हो, ऐसा होना चाहिए यह मान्यता केवल झूठी और पागलपन की है। यह बात पाठकों को या भक्तों को कभी भूलनी नहीं चाहिए। भक्ति का आनंद आध्यात्मिक होता है। उसके कारण कोई विशेष व्यावहारिक योग्यता या सृष्टि नियम का ज्ञान या राष्ट्र के ऐहिक उत्कर्ष के लिए उपयोगी कोई बात, विशेष रूप से शक्ति या युक्ति संतों के, योगियों के, भक्तों के शरीर को प्राप्त नहीं होती। कितने ही संत एकदम निरक्षर थे नाम की महिमा से उन्हें बाराखडी भी स्वयं होकर ज्ञात नहीं हुई। फिर सर्वज्ञता का नाम ही मत लें। कितने ही एकदम भोले, जग तो क्या परंतु देश का भी भूगोल, इतिहास या राजनीति भी उन्हें ज्ञात नहीं थी। उनके प्रत्येक संकट में भगवान् प्रसन्न होते थे यह बात तो उनके चरित्रों को झुठलाती है। चोखा संत को, सनातनी लोगों ने जब हल को जोता था, तब पांडुरंग ने उनके प्राण बचाए। परंतु जब उस संत चोखा को मुसलमान बादशाह पकड़कर ले गया और उसने उससे बेगार करवाई, तब पांडुरंग उस तरफ गए भी नहीं। सीमा की दीवार बनाते-बनाते गिर गई जिसके नीचे दबकर संत चोखामेला मर गया। यह बात संतचरित्रों में लिखी है। फिर उस समय पांडुरंग प्रसन्न क्यों नहीं हुए? नामदेव, तुकारामादि के घर महिलाएँ और बच्चे भूख से मर गए। तुकाराम लिखते हैं, “स्त्री एकी अन्नान्न करून मेली!” (अर्थात् एक स्त्री अन्न अन्न करते हुए मर गई) ‘नामाचा महिमा’ एक प्रकार का आध्यात्मिक आनंद उस व्यक्ति को दे सका तो भी उस व्यक्ति के या राष्ट्र के जीवन में ‘नाम की महिमा’ की कुछ भी साख नहीं होती, यह स्पष्टता से ध्यान में रखना चाहिए।
संत अपने अन्य गुणों के कारण ही महान् होते हैं। उनका या भक्तिपंथ का बेकार गुणगान करने से उनके चरित्रों की दुर्गति हुई है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए उदाहरणस्वरूप एक सामान्य भक्त द्वारा गाया हुआ और संत नामदेव के नाम पर चलाया हुआ यह चमत्कार देखें।
पुराने संत महिपति ने नहीं अपितु आज के आजगाँवकर के समान लेखक ने श्रद्धापूर्वक ‘निर्भीड’ नामक मासिक पत्र के फरवरी अंक में ऐसा वर्णन किया है। कि ‘एक ब्राह्मण ने नामदेव को बेदर जाने का आग्रह किया। नामदेव जाने को तैयार नहीं थे। पांडुरंग ने उन्हें जाने की आज्ञा दी (सरल बात यह है कि नामदेव की भी जाने की इच्छा हो गई। परंतु कर्ता भगवान्! इस तात्विक भाषा के ढाँचे में वह बात बताते ही वही अक्षरशः सत्य मानकर चमत्कार हुआ। प्रत्यक्ष पांडुरंग ने कहा, ‘जाओ’ ) उसके बाद ब्राह्मणों का एक बड़ा समूह लेकर भजन एवं नामघोष करते हुए नामदेव बेंदर नगर में प्रवेश करने लगे। उस समय बेदर का सुलतान महल की छत पर बैठा था। उसने वाद्यों की आवाज सुनी और पताकाओं के साथ समूह को देखा तब अपने प्रधान काशीपंत से पूछा, “यह किसकी सेना है, जो अपनी राजधानी पर आक्रमण कर रही है ?” काशीपंत ने सेनापति को बुलाकर कहा कि ‘यह सेना किसकी है? कहाँ जा रही है ? इधर आने का उद्देश्य क्या है? आदि बातों का पता लगाओ!’
तब बहुत से पठान सैनिकों को लेकर सेनापति सीमा पर गए और उन्होंने तुरंत नामदेव की भजन मंडली को घेर लिया। ब्राह्मण भयग्रस्त होकर पांडुरंग को पुकारने लगे। नामदेव ने आगे बढ़कर सेनापति से कहा, “मैं त्रैलोक्यनाथ पंढरपुर के पांडुरंग का सेवक हूँ। ये ब्राह्मण भी उत्सवार्थ यहाँ पर आए हैं। (आश्चर्य है कि यह उन्मत्त बादशाह, तीर्थयात्री और सेना में जो अंतर है वह भी नहीं जान पाया) आप लोग यह घेरा उठा लें और हमें मार्ग दें।” सेनापति ने तुरंत सैनिकों का घेरा उठा लिया। देखा यह वर्णन। एकदम अरेबियन नाइट्स की शैली। बादशाह छत पर से देखता है तब तक उसे बड़ी सेना के आगमन की सूचना नहीं थी। इतनी सुलतानी राज्य व्यवस्था ढीली-ढाली नहीं होती थी। नामदेव के साथ अधिक-से-अधिक दो-तीन सौ ब्राह्मणादि की मंडली थी। कथा में यह लिखा है। पंचा-पगड़ी- पताकाधारी वह मुट्ठी भर समाज बादशाह ने देखा। परंतु खड्ग, बंदूक, तोप आदि कुछ न होते हुए भी उसे वह बड़ी सेना लगी। काशीपंत प्रधान को भी कुछ पता नहीं था। ऐसे प्रकरण में पूछताछ करने के लिए कोतवाल को बुलाना चाहिए, सेनापति को नहीं। सेनापति इतना भोला-भाला था कि जब तक बादशाह ने नहीं देखा तब तक बड़ी सेना आने की सूचना उसको नहीं मिली थी। लगता है, सेनापति कभी छत पर बैठता ही नहीं था। आश्चर्य की बात तो यह है कि सेनापति पठानों की दूसरी बड़ी सेना लेकर गया। सामने के समूह के पास खड्ग, बंदूक, तोप आदि आयुध नहीं हैं और वे केवल पंचा, पगड़ी और पताकाधारी भजनी लोग हैं, यह देखते हुए भी उसे वह बड़ी सेना लगी लगता है, सेनापति आँखों पर तथा कानों पर पट्टी बाँधकर गया था। बाद में वह घेरा डालता है तो ब्राह्मणादि वारकरी भय से काँपने लगे। पांडुरंग, त्रैलोक्यनाथ के ये सेवक! ऐसा नामदेव ने कहा यह यदि सही है तो उस त्रैलोक्यनाथ ने पहले उस उन्मत्त बादशाह का कान पकड़कर उसे छत पर ही क्यों नहीं बताया कि ये वारकरी हैं, सैनिक नहीं। बेचारे वारकरियों को भयग्रस्त होने तक पांडुरंग ने उपद्रव क्यों होने दिया ? नामदेव के ‘घेरा उठाओ’ कहते ही सेनापति ने घेरा उठाया। कितने भोलेपन की कथा है यह! सेनापति तो बादशाह का गुलाम था । बादशाह की आज्ञा होने तक तो रुकता। नामदेव की आज्ञानुसार उसने सेना का सशस्त्र घेरा कैसे उठाया ?
सेनापति ने बादशाह के पास आकर समस्त वृत्तांत कथन किया। बादशाह को क्रोध आया। नामदेव को उनके वारकरी मंडली सहित पकड़कर लाया गया। वह सारी ब्राह्मण मंडली दो सौ की थी। उन्हें गारदियों के हाथों से मारते-पीटते बेदर के बाजार में घुमाया हिंदू लोग दुःखी हो गए, परंतु बादशाह के जुल्म को रोकने की सामर्थ्य उनमें कहाँ थी? (यह प्रश्न पूछनेवाले आजगांवकर स्वयं से यह प्रश्न क्यों नहीं पूछते कि ‘उस नामदेव के धनी’ त्रैलोक्यनाथ उन गरीब सैकड़ों भक्तों की मार-पीट और अपमान देखते रहे. इतने कठोर और अनाथ वे कैसे हो गए? पांडुरंग ने ही नामदेव को उन ब्राह्मणों के साथ जाने के लिए कहा था। फिर उसी समय पांडुरंग ने बादशाह को बाँधकर उस दिन के लिए जेल में बंद क्यों नहीं रखा? एक तो बेदर के बादशाह की अपेक्षा यह अपना पांडुरंग दुर्बल है या समर्थ होते हुए भी अपने भक्तों का अपमान और छल निष्कारण चलने देना इतना खटनट है। इस प्रकार की व्यर्थ कथाएँ अपने देवताओं का ही अपमान करती हैं। यह बात हमारे भक्तों के ध्यान में भी नहीं आती। भोली तारतम्यशून्यता से आजगांवकर जो लिखते हैं उसका सारांश ऐसा है।) उन सब भक्तों को बादशाह के सम्मुख भेड़ों के समान खड़ा किया गया, बादशाह ने एक गाय लाकर उसका वध करवाया, तब नामदेव ने भगवान् की आराधना की, गाय जीवित हो उठी। बादशाह ने नामदेव को साष्टांग प्रणाम किया। भगवान् ने भक्त की पुकार सुनकर हिंदू धर्म की लज्जा रख ली। (लाज रखी या लाज ली ? यह नाम की महिमा या कलंक। जब भगवान् आए थे तो हिंदुओं को इतना छलनेवाले उस उन्मत्त बादशाह को खटिक के हाथ में देकर उन्होंने उसे मरवा क्यों नहीं डाला? एक गाय जीवित करके पुनः पुनः शताधिक गायों को मारकर खानेवाले और हिंदू को छलनेवाले उस मुसलमान बादशाह को जीवित रखना ? यही बादशाह थोड़े दिन के बाद विजयनगर के रामराय का सिर काटेगा, सहस्राधिक हिंदुओं का तालिकोट में कत्ल, हिंदू राजकन्याओं पर बलात्कार करवाएगा, मंदिरों पर हल चलाएगा, यह न समझनेवाला त्रैलोक्यनाथ सर्वज्ञानी पांडुरंग राजनीति का अनाड़ी था क्या? फिर एक गाय जीवित करके उन्होंने हिंदू धर्म की लाज किस प्रकार रख ली ? परंतु भक्त जितने कमजोर हैं उतने ही उनके देव भी भक्त जितने राजनीति में भयग्रस्त या भोले उतने ही उनके देव भी गाय जीवित कर दी इस घटना के लिए ऐतिहासिक साक्ष्य भी नहीं। यदि इसको सत्य भी मानें तो भी नाम की महिमा या संत की सामर्थ्य अद्भुत नहीं ठहरती यदि मृत को जीवित करने की सामर्थ्य गलती से भी नामदेव में या नाम की महिमा में होती तो एक ही गाय जीवित करने की बजाय उस पीढ़ी में किसी सज्जन को मरने नहीं देना चाहिए था। संत चोखोबा सीमा की दीवार के नीचे दबकर मर गए, नामदेव ने दुःख प्रकट किया। उनका प्रेत ढूँढ़ते समय ढेर सारी हड्डियाँ नामदेव ने ही निकालीं। परंतु वहाँ पुनः नाम का गजर करके उन्हें चोखा को जीवित करना संभव नहीं हुआ। उस गाय की अपेक्षा वह संत चोखा नामदेव को सहस्रगुना प्रिय था उसकी मृत्यु के कारण वे अति दुःखी हो गए थे। फिर उसे क्यों जीवित नहीं किया?
रामदास ने चिता पर जानेवाले एक शव को जीवित उठाया ऐसा चमत्कार लिखा है। चिता पर से अनेक प्रसंगों में मृत शरीर जीवन शक्ति का यंत्र पुनः शुरू होने से उठ बैठे हैं। व्यवहार में ऐसी बात कभी-कभी हो जाती है। परंतु रामदासजी का आशीर्वाद देना और मृत शरीर जीवित होना यह घटना एक ही समय में हो गई। और वह ‘चमत्कार’ माना गया। यदि समर्थ को संजीवनी शक्ति की सामर्थ्य होती तो बाजी देशपांडे पावनखिंडी में या तानाजी सिंहगढ़ में युद्ध में गिर पड़े तब शिवाजी राजा को शोकाकुल देखकर रामदास के आशीर्वाद से हिंदू राष्ट्र के इन नेताओं को जीवित नहीं किया गया होता ? प्रत्यक्ष शिवाजी राजे ‘गुड़घी’ रोग से आसन्नमरण हैं यह बात रामदास को पता चली, समर्थ को दुःख हुआ, तब कम- से-कम शिवाजी को तो जीवित रखना था। शिवाजी की मृत्यु की समर्थ को खुशी नहीं थी। इसके विपरीत भय था राजे शिवाजी हमें छोड़कर चले गए। अतः समर्थ इतने दुःखी हुए कि उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया। एक यः कश्चित् स्त्री के लिए, उसके पति को ‘जीवित हो’ कहते ही जीवित करने की सामर्थ्यं समर्थ में थी फिर भी बाजी, तानाजी, शिवाजी की पत्नियों को और प्रत्यक्ष महाराष्ट्र राज्यलक्ष्मी को वैधव्य में डालते इतने समर्थ क्या भोले थे? नामदेव दुष्ट थे ऐसा कहिए या रामदास के या नामदेव के यह साधारण कार्य गाय या मनुष्य को जीवित करने के नाम महिमा के ‘चमत्कार’ बेकार हैं, वह बोलने होने की संयोग की बात है या – इसे संशयास्पद योगायोग कह सकते हैं। अन्य कुछ भी हुआ तो नाम महिमा से दुनिया में कुछ भी किया जा सकता है या संतों के ईश्वरीय अधिष्ठान के बिना कुछ एक यश भौतिक राजनीति में नहीं आएगा ऐसी दुर्बल, भोली और पागलपन की भाषा तो छोड़ देनी चाहिए। हम समझें कि हिंदुओं का छल करनेवाले इस बादशाह का हाथ काटने के लिए मना कर देने के लिए वह देव कुछ सहनशील या मंदबुद्धि नहीं है। ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती। कारण आजगांवकर ने आगे ठोक-बजाकर कहा है-
नामदेवादि संतों के छल का प्रायश्चित्त बेदर के बादशाह को तुरंत भयंकर रीति से भुगतना पड़ा था उसकी प्रजा को भी भुगतना पड़ा, क्योंकि थोड़े ही 1 दिनों में सुलतान के बाड़े में और नगर के घर-घर में असंख्य साँप निकले और सैकड़ों लोगों को डस लिया। सर्प दंशितों को खाटों पर डालकर सैकड़ों लोग राजभवन आए।

‘काळे, पिवळे, आरक्त वर्ण। गुजगव्हाळे लंबायमान ।।
भरोनी निघाले घर आंगण सर्पे रोधिली अवधी धरित्री ।।
पाय ठेवावा कोठेतरी हत्ती घोड़े राव लष्कर ॥
सर्पे रोधिले अवधे अंबर ।’

अर्थात्-काले, पीले, लाल वर्ण के, छोटे-बड़े लंबे सर्प निकले। उन्होंने घर, आँगन और संपूर्ण धरती घेर ली। कहीं पाँव रखने के लिए भी जगह खाली नहीं थी। हाथी, घोड़े, लाव-लश्कर और आकाश को भी सर्पों ने घेर लिया था।
यह स्पष्ट रूप से कवि कल्पना है। सत्य का जरा भी अंश उसमें नहीं। समस्त पृथ्वी और आकाश सर्पमय हो गया था ऐसा कहने की बजाय यदि हम कहें कि कवि के दिमाग में ही सर्प भरे हुए थे तो अधिक सही होगा। उन सर्पों के रंग भी दिए हैं। मानो दो पीढ़ियों के बाद जनमे महिपति ने प्रत्यक्ष देखकर लिखा था। इस प्रकार के कविता के सबूत पर ऐसे अद्भुत चमत्कार को सत्य मानने के लिए कहते हैं। और ‘सिद्ध’ होने की बात भी बताते हैं।
इसके उपरांत सुलतान भयभीत हुआ। उस काशीपंत को नामदेव की ओर भेजा। काशीपंत ने संत नामदेव से प्रार्थना की कि संत महाराज, महावैष्णव के छल का प्रायश्चित्त आपने सुलतान को दिया। आपके शाप ने कितने ही लोगों के प्राण हरण कर लिये हैं। उन मृतों और स्त्री-बच्चों पर आपको दया नहीं आई तो प्रत्यक्ष भगवान् भी उनकी रक्षा नहीं कर पाएँगे। अतः उनपर दया कीजिए और अपना सर्पास्त्र वापस लीजिए। नामदेव इस समय ब्रह्मानंद में मग्न होने के कारण बेहोश थे। उनके पीछे खड़े पांडुरंग ने उन्हें सचेत किया। तब उन्हें शव और स्त्री- बच्चों का रुदन देखकर दया आ गई। ‘भगवान्, यह दुःख दूर करो’ ऐसी पांडुरंग से प्रार्थना की। तब सारे मृत शरीर जीवित होकर खड़े हो गए और सर्प भी अदृश्य हो गए।
अपराध किया सुलतान ने, परंतु भगवान् ने जो सर्पास्त्र छोड़ा उस कष्ट से सैकड़ों प्रजाजन मर गए; मुसलिम ही नहीं अपितु केवल ‘प्रजाजन’ यानी हिंदू भी । स्त्री-बच्चे हिंदुओं के घर-घर चिल्लाते रहे, परंतु जिस दुष्ट ने अपराध किया, संतों से छल किया, उस सुलतान को उन सर्पों में से कोई स्पर्श भी नहीं कर पाया। क्षण के लिए कम-से-कम भूमि पर लोटे इतना भी उसे काटा नहीं और न उसके स्त्री- बच्चों को डसा। संत तो ब्रह्मानंद की बेहोशी में थे परंतु जिसने यह सर्पास्त्र बदला लेने के लिए छोड़ा था वह भगवान् भी होश में नहीं था ऐसा कह सकते हैं। उस – पांडुरंग में यदि कोई ‘राम’ होता तो उसने सर्वप्रथम उस रावण को पकड़ा होता, पहला सर्प जो छोड़ना था वह उस सुलतान की नटई में दाँत घुसेड़ता जिसने हिंदू- वैष्णवों का छल किया था। हाँ, काशीपंत इतना बड़ा राजनीतिक प्रधान, उसने क्यों सर्पास्त्र पीछे लेने की बात की। उसे तो इसके विपरीत कहना था कि मुसलमानी तख्त को तोड़कर वैष्णवों का झंडा फहरानेवाली हिंदू पदपादशाही की स्थापना करो। परंतु ऐसे संत, स्वप्न के सर्पास्त्र और ऐसे प्रधान हिंदुओं में तब तक थे इसलिए वह बादशाही तख्त भी कायम रहा इसमें क्या आश्चर्य! और जब रामदास जैसे संत, बाघनखा, भवानी भाऊ साहेबी मार जैसे शस्त्र और प्रथम बाजीराव जैसे प्रधान मंत्री हुए तब उन तख्तों का नाश हो गया इसमें क्या आश्चर्य।
वास्तविक रूप से देखा जाए तो नामदेवादि पूज्य संतों ने उस स्थिति में उनकी शक्तिनुसार और बुद्धिनुसार जितना कर सकते थे उतना जनहित किया, ये उनके उपकार ही थे। यह उनकी नाम महिमा थी। इस महिमा से इहलोक के कठिन जीवन से त्रस्त मन को अभी भी आस-पास की स्थिति का विस्मरण होने में और ब्रह्मानंद प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इस नाम का व्यक्तिगत उपयोग होता है। परंतु उससे ऐहिक सृष्टि की घटनाओं में उस नाम की महिमा अत्यल्प भी उपयोगी नहीं है। ब्रह्मानंद मिला, संत हो गया, समाधि सिद्ध हो गई कि वह मनुष्य कर्तुमकर्तुम समर्थ, सर्वज्ञ, सब प्रकरणों में परम प्रमाण ऐसा कोई मानव बनता है। उसके कहने पर ईश्वर भी उलटे-सीधे कार्य करने लगते हैं, इस भोली-भाली समझ के कारण ही इन संतों की फालतू विडंबना होती है। वह गलत समझ भी चित्रपटों के कारण अधिक प्रचलित होने से संभव न रहे; अतः उसका विवेचक बुद्धि से तीव्र विरोध करना प्रथम कर्तव्य बनता है। ”


– वीर सावरकर

संदर्भ – विज्ञाननिष्ठ निबंध

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