सत्य सनातन धर्म कौन सा ? – वीर सावरकर

सत्य सनातन धर्म कौन सा ?

वर्तमान में चल रहे सामाजिक तथा धार्मिक आंदोलनों के दंगल में, सुधारक अर्थात् जो सनातन धर्म का उच्छेद करना चाहता है वह, इस प्रकार की परिभाषा ‘सनातनी’ कहनेवालों के पक्ष ने निश्चित कर दी है ऐसा लगता है। लोगों को भी बचपन से सनातन यानी रूढ़ि के विरोध में एक शब्द भी न बोलते हुए उसे शिरसावंद्य मानना ही धार्मिक कर्तव्य है और ऐसी आज्ञा या रूढ़ि है ऐसा समझने की आदत है। कोई रूढ़ि व्यवहार में स्पष्ट रूप से हानिकारक दिखती हो फिर भी वह सनातन है ऐसा कहते ही उसको भंग करना उन्हें उचित नहीं लगता और जो सुधारक उस रूढ़ि को भंग करने निकला है वह कुछ अपवित्र, धर्मविरोधी, अकर्म करने निकला है ऐसा उनका पूर्वग्रह हो जाता है। लोक समाज का यह पूर्वग्रह दूर करने के लिए और हमारे सनातनी बंधुओं की वह व्याख्या कितनी उचित या अनुचित है यह बात दोनों के ध्यान में स्पष्ट रूप से लाने के लिए इस वादग्रस्त प्रकरण के ‘सनातन और धर्म’ इन दो मुख्य शब्दों का अर्थ ही पहले निर्धारित करना आवश्यक है। केवल यह सनातनी और वह ‘सुधारक’ ऐसा चिल्लाते रहने का कोई अर्थ नहीं। हम अपने को सनातन धर्म के अभिमानी समझते हैं। और कितने ही सनातनी अपने व्यवहार से बहुत सी सुधार की बातों को समर्थन देते दिखाई देते हैं। ऐसी गड़बड़ी में सनातन धर्म की निश्चित परिभाषा हम अपने लिए निश्चित कर लें तो भी बहुत से मतभेद नष्ट होने का और जो मतभेद रहेंगे वे क्यों, किस अर्थ में बचते हैं आदि बातें स्पष्टता से ध्यान में आने की बहुत संभावना है। इसलिए इस लेख में हम ‘ सनातन धर्म’ इन शब्दों को किस अर्थ में लेते हैं और किस अर्थ में हमें धर्म ‘सनातन’ इस उपाधि के लिए उचित लगता है, वह संक्षेप में स्पष्टता से कहनेवाले हैं।

जिन अर्थों में उन शब्दों का उपयोग किया जाता है वे अर्थ इतने विविध, विसंगत और परस्पर विरोधी होते हैं कि वे जैसे हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकारना एकदम अनुचित होगा। श्रुति-स्मृति से लेकर शनि माहात्म्य तक सभी पोथियाँ और वेदों की अपौरुषेयता से बैंगन के अभक्षता तक के सभी सिद्धांत इस एक सनातन धर्म की उपाधि तक पहुँचे हैं। उपनिषद् के परब्रह्म स्वरूप के अति उदार विचार भी सनातन धर्म हैं और आग की ओर पाँव करके सेंकना नहीं चाहिए, कोमल धूप में बैठना नहीं चाहिए, लोहे का विक्रय करनेवाले का अन्न कदापि नहीं खाना चाहिए; रोग चिकित्सक वैद्यभूषण का अन्न तो घाव के पीप जैसा होता है, साहूकारी करनेवाले ब्याज-बट्टा लेनेवाले गृहस्थों का अन्न विष्ठा के समान होने के कारण उनके साथ या उनके घर पर कभी भोजन नहीं करना चाहिए। (मनु. ४-२२०) गोरस का मावा, चावल की खीर, बड़े आदि खाना भी निषिद्ध होता है। लहसुन, प्याज और गाजर खाने से द्विज तत्काल पतित होता है। (पतेद्विजः ! मनु. ५-१९) परंतु श्राद्ध के निमित्त बनाया हुआ मांस जो कोई हठ से खाता नहीं, वह अभागा इक्कीस जन्म पशुयोनि पाता है। (मनु. ५-३५) ‘नियुक्तस्तु यथान्ययं यो मांसं नात्ति मानवः । सप्रेत्या पशुतां याति संभवानेकविंशतिन् !!’ वे सारे सनातन धर्म हैं। श्राद्ध में ब्राह्मण को चावल की बजाय वराह का या भैंस का मांस खिलाना उत्तम, कारण पितर उस मांस-भोजन से दस माह तक तृप्त रहते हैं। बाघिन या बकरे का मांस ब्राह्मणों ने खाया तो पूरे बारह वर्षों तक पितरों का पेट भरा हुआ रहता है। व्याघ्रीणस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी (मनु. ३, ३-७१) यह भी सनातन धर्म है। और किसी भी प्रकार का मांस भक्षण नहीं करना चाहिए, ‘निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् !’ मासाशनास्तव प्राणिवध को केवल अनुमति देनेवाला भी ‘घातक’ या महापापी है। (मनु. ५, ४९ (५१) यह भी सनातन धर्म मुख से अग्नि को फूँकना नहीं चाहिए, इंद्रधनुष देखना नहीं चाहिए, ‘नाश्नीयाद् भार्यया साधम्’ स्त्री के साथ भोजन नहीं करना चाहिए, उसको भोजन करते वक्त देखना भी नहीं, दिन में मल-मूत्रोत्सर्ग उत्तराभिमुख ही करो, परंतु रात में दक्षिणाभिमुख (मनु. ४-४३) आदि समस्त विधि निषेध उतने ही मननीय सनातन धर्म हैं कि जितने ‘संतोषे परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्, संतोषमूल हि सुखं दुःख मूलं विपर्ययः ।’ (मनु. ४-१२) आदि उदात्त उपदेश भी मननीय सनातन धर्म हैं।

इस प्रकार अनेक प्रसंगों में बिलकुल परस्पर विरोधी विधि निषेधों को तथा सिद्धांतों को सनातन धर्म- यह शब्द केवल साधारण तुंगे- मुंगे भोले-भाले लोग ही लगाते, ऐसा नहीं अपितु अपने सारे स्मृति-पुराणों के धर्मग्रंथों की भी यही परंपरा चल रही है। उपर्युक्त सभी बडया, छोटया, व्यापक, विक्षिप्त, शतावधानी, क्षणिक आचार-विचारों के अनुष्टुप के अंत में पूर्णत: स्पष्ट रूप से एक ही राजमुद्रा लगाई जाती है कि ‘एष धर्मस्सनातनः’ ।

अपने धर्मग्रंथों में ही इस प्रकार की खिचड़ी पकी ऐसा नहीं अपितु जगत् के अन्य सभी अपौरुषेय कहनेवाले प्राचीन और अर्वाचीन धर्मग्रंथों की भी यही स्थिति है। हजारों वर्ष पूर्व के मोसेस पैगंबर से आजकल के अमेरिका के मोर्मन पैगंबर तक सभी ने मानव के उठने-बैठने से लेकर दाढ़ी-मूँछों-चोटी की लंबाई चौड़ाई, वारिस- दत्तक, शादी के निर्बंधों से देव के स्वरूप तक अपने सारे विधानों पर ‘एष धर्मस्सनातनः ‘ यही राजमुद्रा और वह भी देव के नाम से लगाई है। ये सारे विधि निषेध भगवान् ने समस्त मानवों के लिए अपरिवर्तनीय धर्म बताए हैं। उनके अनुसार सभी मनुष्यों की सुनता करनी ही चाहिए यह भी सनातन धर्म और त्रैवर्णिको को वैसा ऊटपटाँग कुछ न कर जनेऊ पहनाना चाहिए यह भी सनातन धर्म! लाक्षणिक अर्थ से नहीं अपितु अक्षरश: इन सभी अपौरुषेय, ईश्वरीय धर्मग्रंथों में एक का मुख पूर्व को तो दूसरे का पश्चिम की ओर झुका हुआ। वह भी प्रार्थना के प्रथम कदम पर ही। सुबह ही पूर्व की ओर मुख करके प्रार्थना करना सनातन धर्म और सुबह भी प्रार्थना करनी हो तो पश्चिम की ओर मुख करके करनी चाहिए यह भी मनुष्य मात्र का सनातन धर्म। एक ही ईश्वर ने मनु को वह प्रथम आज्ञा दी और मोहम्मद को यह दूसरी ईश्वर की यह विचित्र लीला है और क्या कहें हिंदू-मुसलमानों के दंगे कराकर अपना अंग जचाकर दूर से मजा देखने का आरोप शौकत अली पर बिना से कारण किया जाता है। यह खेल चालू करने का प्रथम मान उनका नहीं, वह मान तो बिलकुल परस्पर विरोधी प्रकार के अपरिवर्तनीय सनातन धर्म उन दोनों को बताकर उनकी लड़ाई लगानेवाले हँसोड़ स्वभाव के ईश्वर का ही है। यह उसी की लीला है और उसकी न होगी तो उसके नाम पर यह ग्रंथ जबरदस्ती लादनेवाले मनुष्य की मूर्ख श्रद्धा की।
समस्त रोम जब जल रहा था तब सारंगी बजाने का आनंद लूटनेवाले नीरो का नाम भगवान् को लगाने की बजाय मानवी मूर्खता पर ही उपर्युक्त विसंगति का दोष लादना हमें अधिक युक्तियुक्त लगता है। इन सब विसंगत और परस्पर विरोधी बातों को ‘सनातन धर्म’ नामक एक ही उपाधि देने में मानवी बुद्धि ही चूक गई है। सनातन धर्म शब्द का यह रूढ़ार्थ ही इस विसंवाद के कारण हुआ है और उस शब्द के मूल अर्थ की छानबीन करके उसे संवादी बातों को ही वह शब्द लगाने से इन विविध विचारों के संघर्ष में सही सनातन धर्म कौन सा है यह निश्चयपूर्वक और बहुतांश में स्पष्टता से कहा जा सकता है यह हमारी धारणा है। उन शब्दों के अर्थ की छानबीन इस प्रकार होगी—

सनातन धर्म का मुख्य अर्थ शाश्वत, अबाधित, अखंडनीय, अपरिवर्तनीय है। ‘धर्म’ शब्द अंग्रेजी ‘लॉ’ शब्द के समान और वैसा ही मानसिक प्रक्रिया के कारण बहुत अर्थांतर करता हुआ आया है।

१. प्रथमतः उसका, मूल का व्यापक अर्थ नियम है। किसी भी वस्तु के अस्तित्व और व्यवहार को जो धारण करता है, नियमन करता है वह उस वस्तु का धर्म, सृष्टि का धर्म, पानी का धर्म, अग्नि का धर्म आदि उनके उपयोग इस व्यापक अर्थ में होते हैं। सृष्टि नियम में ‘लॉ’ शब्द भी लगाते हैं जैसे ‘लॉ ऑफ ग्रेविटेशन’।

२. इसी व्यापक अर्थ के कारण पारलौकिक और पारमार्थिक पदार्थों के नियमों को भी ‘धर्म’ कहने लगे। फिर वे नियम प्रत्यक्ष रूप से हों या उनका भास मात्र हो। स्वर्ग, नरक, पूर्वजन्म, ईश्वर, जीव, जगत् इनके परस्पर संबंध, इन सबका अंतर्भाव ‘धर्म’ शब्द में ही किया गया। इतना ही नहीं अपितु धीरे धीरे वह ‘धर्म’ शब्द उसके पारलौकिक विभागार्थ ही विशेष करके आरक्षित हुआ। आज धर्म शब्द का विशेष अर्थ ऐसा ही होता है और इस अर्थ में धर्म ‘रिलिजन’ हो जाता है।

३. मनुष्य के जो ऐहिक व्यवहार उपर्युक्त पारलौकिक जगत् में उसे उपकारक भासते हैं, उस पारलौकिक जीवन में उसका धारण करना ‘धर्म’ माना गया। अंग्रेजी में मोसेस, अब्राहम, मोहम्मद आदि पैगंबरों द्वारा रचित स्मृतिग्रंथों में हँस-हँसकर भरे सारे कर्मकांडों को ‘लॉ’ कहा है। इस अर्थ में धर्म यानी आचार।

४. अंत में उपर्युक्त आचार छोड़कर मानव-मानव के बीच जो केवल ऐहिक व्यवहार होते हैं उस व्यक्ति के या राष्ट्र के व्यवहार-नियमों को भी पूर्व में ‘धर्म’ कहते थे। स्मृति में युद्धनीति, राजधर्म, व्यवहार धर्म आदि प्रकरणों में यह बात मिलती है। परंतु आज इसमें से बहुत सा अंश स्मृतिनिष्ठ अपरिवर्तनीय धर्मसत्ता से निकलकर अपने इधर भी परिवर्तनीय मनुष्यकृत नियमों की कक्षा में शास्त्री पंडितों को भी निषिद्ध न लगे, इतने निर्विवाद रूप से समाविष्ट हुआ है। जैसे गाड़ी चलाने के निर्बंध, गालियाँ, चोरी आदि के •दंडविधान संबंधी निर्बंध शासन का (कानून, शासन का) क्षेत्र है। हम ‘धर्म’ शब्द को आज जैसा ‘रिलिजन’ विशेषार्थ में आरक्षित करते हैं वैसे ही अंग्रेजी में ‘लॉ’ शब्द विशेषार्थी निर्बंध शासन को अर्पित किया गया है। इस प्रकरण में ‘धर्म’ यानी विधि (कायदा, ‘लॉ’)।

इस लेख में यथासंभव ‘सनातन’ और ‘धर्म’ इन दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने के उपरांत उपर्युक्त विभागों में से अब ‘धर्म’ शब्द के किस अर्थ को ‘सनातन’ शब्द यथार्थता से लगाया जा सकता है, यह तय करना अधिक कठिन नहीं है। हमने सनातन धर्म का अपने लिए उपर्युक्त जो अर्थ निश्चित किया है वह है शाश्वत नियम, अपरिवर्तनीय, जो बदलना नहीं चाहिए। इतना ही नहीं अपितु जिन्हें बदलना मनुष्य की शक्ति के बाहर की बात है, ऐसे अबाधित जो ‘धर्म’ होंगे, नियम होंगे, उन्हें हो ‘ सनातन धर्म’ ही उपाधि यथार्थता से दे सकेंगे। यह लक्षण ऊपर जो धर्म का पहला विभाग हमने किया है उस सृष्टि नियमों पर संपूर्णतः लागू होता है। प्रत्यक्ष अनुमान और उसके विरोध में न जानेवाला यथार्थ वाक्य इन प्रमाणों के आधार पर सिद्ध हो सकनेवाले और जिसके संबंध में किसी ने भी यथाशास्त्र प्रयोग किया होता, उन कार्यकारण भाव की कसौटी पर कभी भी सही ठहर सकते हैं, ऐसे मनुष्य के ज्ञान के अंतर्गत जो-जो सृष्टि नियम और जो वैज्ञानिक सत्य आज प्रमाणित हैं उन्हें ही हम सनातन धर्म समझते हैं। केवल गिनती हेतु नहीं अपितु दिग्दर्शन के लिए निम्नलिखित नामोल्लेख पर्याप्त हैं। प्रकाश, उष्णता, गति, गणित, गणितज्योतिष्य, ध्वनि, विद्युत्, चुंबक, रेडियम, भूगर्भ, शरीर, वैद्यक, यंत्र, शिल्प, वानस्पत्य आदि तत्सम जो प्रयोगक्षम शास्त्र (साइंसेस) हैं, उनके जो प्रत्यक्षनिष्ठ और प्रयोगसिद्ध नियम आज मानवजाति को ज्ञात हुए हैं वे ही हमारे सनातन धर्म हैं। ये नियम आर्यों के लिए, मुसलमानों के लिए या काफिरों के लिए भी, या इजराइलियों के लिए अवतीर्ण नहीं हुए हैं अपितु समस्त मनुष्य मात्र पर निःपक्षपाती समानता से लागू हैं। यह सही सनातन धर्म है। इतना ही नहीं अपितु यही सच्चा मानवधर्म है। इसलिए उसे सनातन विशेषण निर्विवाद लागू करना पड़ता है। सूर्य, चंद्र, ताप, तेज, वायु, अग्नि, भूमि, समुद्र आदि पदार्थ किसी के इच्छानुसार प्रसन्न या रुष्ट होनेवाले देवता नहीं अपितु ये सब हमारे सनातन धर्म के नियमों से पूर्णत: बद्ध वस्तुएँ हैं। वे नियम यदि और जिस प्रमाण से मनुष्य प्राप्त कर सकेगा उस प्रमाण में इन सब सृष्टि शक्तियों के साथ उसे ठोंक-बजाकर और बिनचूक व्यवहार करना आना चाहिए — करना आता है। एकदम गहरे महासागर में जिसके तल में छेद है ऐसी नाव छोड़ दें फिर वह डूबनी नहीं चाहिए इसलिए उस समुद्र को प्रसन्न करने हेतु नारियल के ढेर उसमें फेंक दिए और शुद्ध वैदिक मंत्रों का जोर-शोर से उद्गार किया कि ‘तस्मा अरं गमाव वो यस्य क्षमाय जिन्वथ। आपो जनयथा चनः ।’ तो भी वह समुद्र मानवों के साथ उस नाव को हजार में नौ सौ निन्यानबे प्रकरणों में डुबाए बिना नहीं रहता।। और यदि उस नाव को वैज्ञानिक नियमों के अनुसार ठीक-ठाक करके, फौलादी पत्रों से मढ़कर बेडर बनाकर जल में छोड़ दिया तब उसपर वेदों की होली कर सकनेवाले और पंचमहापुण्य समझकर शराब पीते हुए, गोमांस खाते हुए, मस्त हुए। रावण के राक्षस भी बैठे हों तो भी उस ‘बेडर’ नाव को हजार में नौ सौ निन्यानवे प्रसंगों में समुद्र डुबाएगा नहीं, डुबा नहीं सकता। उसको चाहे जो उस स्वर्णभूमि पर लोगों की जोरदार मार करने के लिए सुख से ले जाएगा। जो बात समुद्र की वही महद्भूतों की। उन्हें अपने काबू में रखने का महामंत्र शब्दनिष्ठ वेद में, अवेस्ता में, कुरान में या पुराण में भी मिलनेवाले नहीं, प्रत्यक्षनिष्ठ विज्ञान (साइंस) में मिलनेवाला है। यह सनातन धर्म इतना पक्का सनातन, इतना स्वयंसिद्ध और सर्वस्वी अपरिवर्तनीय है कि वह डूबना नहीं चाहिए, परिवर्तन न हो इसलिए कोई भी सनातन धर्म संरक्षक संघ स्थापना के कष्ट कलियुग में भी लेने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि इस वैज्ञानिक सनातन धर्म को बदलने की सामर्थ्य मनुष्य में किसी को भी और कभी भी आना संभव नहीं।

यह बात हम जानते हैं कि यह सनातन धर्म, ये सृष्टि नियम संपूर्णतः मनुष्य को आज अवगत नहीं। बहुधा कभी भी उन्हें ज्ञात नहीं होंगे। जो आज ज्ञात है ऐसा लगता है वह ज्ञान भी विज्ञान के विकास से आगे चलकर थोड़ा गलत हो गया —ऐसा भी लगेगा। और अनेक नए-नए नियमों का ज्ञान हमें होगा। जब जब ऐसा होगा या उसमें सुधार करना होगा तब-तब हम, हमारे वैज्ञानिक स्मृतिग्रंथों में न लजाते, न छुपते या आज के श्लोकों के अर्थ की अप्रामाणिक खींचतान न करते हुए नया श्लोक प्रकटता से जोड़कर वह सुधार करा लेंगे। और इसके विपरीत मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि हुई इसलिए उस सुधार को गौरवास्पद ही मानेंगे।
हम ‘स्मृतिग्रंथों’ को सनातन, अपरिवर्तनीय नहीं समझते अपितु सत्य को सनातन समझते हैं। स्मृतिग्रंथ बदलना पड़ेगा इसलिए सत्य को नकारना वैसा ही होगा जैसे घर बड़ा न करना पड़े, इसलिए आदमी के बच्चों की हत्या कर दो, वह पागलपन होगा।।

‘धर्म’ शब्द के पहले विभाग में आनेवाले सृष्टि धर्म पर सनातन विशेषण पूर्ण यथार्थता से लागू हो सकता है यह मैंने ऊपर कहा। अब उस ‘धर्म’ शब्द को जो दूसरा विभाग हमने ऊपर दरशाया है उस पारलौकिक और पारमार्थिक नियमों का विचार करें। इस विभाग को ही आज सनातन धर्म, यह शब्द विशेष रूप से लगाया जाता है। ईश्वर, जीव, जगत् इनके स्वरूप का और परस्पर संबंध के अस्ति-रूप या नास्ति-रूप के कुछ त्रिकालाबाधित नियम होने ही चाहिए। उसी प्रकार जन्म-मृत्यु, स्वर्ग-नरक इनके संबंध में जो कोई यथास्थिति बनेगी वह निश्चितता बतानेवाला ज्ञान भी त्रिकालाबाधित कहने के लिए पात्र होगा। इसलिए इस पारलौकिक विभाग का सिद्धांत भी सनातन धर्म यानी शाश्वत, अपरिवर्तनीय धर्म है इसमें कोई शंका नहीं।

परंतु इस विभाग में जो जानकारी और नियम मनुष्यजाति के हाथों में आज उपलब्ध सभी धर्मग्रंथों में दिए हुए मिलते हैं, उनमें से किसी को भी सनातन धर्म या अपरिवर्तनीय निश्चित सिद्धांत नहीं कहा जा सकता। निर्धारित वैज्ञानिक नियमों के अनुसार धर्मग्रंथों में लिखा यह पारलौकिक वस्तुस्थिति का वर्णन प्रत्यक्षनिष्ठ प्रयोगों की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। उसका सारा आधार कहने के लिए शब्द प्रामाण्य पर, आप्तवाक्य पर, विशिष्ट व्यक्तियों के आंतर अनुभूति पर निर्भर रहता है। उसमें भी कुछ बिगड़ता नहीं। कारण, कुछ मर्यादा तक प्रत्यक्षानुमानिक प्रमाण है। परंतु इस प्रमाण की कसौटी पर भी इन धर्मग्रंथों का पारलौकिक विधान किंचित् भी खरा नहीं उतरता। प्रथम यह देखें कि आप्त कौन हैं ? तो हमारे धर्मग्रंथ ही कहते हैं कि चित्तशुद्धि से सत्त्वोदय हुए ज्ञानी भक्त और समाधिसिद्ध योगियों को आप्त मान सकते हैं। अब इन पूर्णप्रज्ञ आप्तों में शंकराचार्य, रामानुज, माध्व वल्लभ आदि सम्मिलित तो करना ही चाहिए न ? महाज्ञानी कपिल मुनि, योगसूत्रकार पतंजलि इन्हें भी छोड़ना असंभव। उदाहरण के लिए इतने आप्त काफी हुए। आप्तवाक्य शब्द प्रमाण होगा तो उनका उस विशिष्ट वस्तुस्थिति का अनुभव एक ही होना चाहिए। परंतु पारलौकिक और पारमार्थिक सत्य का जो स्वरूप और जो नियम वे सब बताते हैं वे सभी भिन्न ही नहीं अपितु बहुधा परस्पर विरोधी भी होते हैं। कपिल मुनी कहेंगे, ‘पुरुष और प्रकृति ये दो सत्य हैं। ईश्वर-विश्वर हम कुछ नहीं जानते।’ समाधिसिद्ध पतंजलि कहते हैं, “तंत्र पुरुषविशेषो ईश्वर।” शंकराचार्य के अनुसार, “पुरुष पुरुषोत्तम, ईश्वर मायोपाधिक और मायाबाधित होकर ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रहोवनापर:” अद्वैत ही सत्य है। रामानुज कहते हैं, “यह प्रच्छन्न बौद्धवाद गलत है। विशिष्टाद्वैत सत्य है और माध्व वल्लभाचार्य कहते हैं, “जीव और शिव, भक्त और देव, जड़ और चेतन को एक किस प्रकार कह सकते हैं? द्वैत ही सत्य है!” इस प्रकार इन महान् साझीदारों के स्वानुभूत शब्दों के साथ भ्रमित होकर यदि बुद्धि इस प्रकार कहती है—

‘पाहियले प्रत्यक्षची! कथितो पाहियले त्याला।
वदति सारे! आप्तचि सारे! मानू कवणाला?

अर्थात्- हमने प्रत्यक्ष देखा है। जो देखा है उसके संबंध में हम कह रहे हैं ऐसा सब लोग बोलते हैं। ये सब आप्तजन हैं। अब मैं किसकी बात को मानूँ ?

तो इसमें भ्रमित बुद्धि का क्या दोष है? तो भी इन योगसिद्धों के साक्ष्य में उस परम योगसिद्ध का उस तथागत बुद्ध के साक्ष्य का वर्णन हमने नहीं किया। ईश्वर संबंध के संपूर्ण विधानों को बुद्ध ने अपने समाधिस्थ स्वानुभूति में ब्रह्मजाल मान त्याज्य माना। समाधिमय ज्ञान, स्वानुभूति आदि इस पारलौकिक वस्तुस्थिति का अबाधित और विश्वसनीय प्रमाण किस प्रकार नहीं हो सकता या अभी तक तो नहीं हुआ ऐसा देखने पर इतना ही कहना शेष रहता है कि शब्दप्रामाण्य की यह स्थिति उपर्युक्त आप्त प्रमाण के समान ही है। अपौरुषेय वेद जिन कारणों से अपौरुषेय मानने चाहिए उन्हीं कारणों के लिए तौलिद, एंजिल, बाइबिल, कुरान, अवेस्ता, स्वर्णग्रंथ एक नहीं दो हैं। दुनिया में आज भी ईश्वर प्रदत्त ग्रंथों की संख्या लगभग पचास है। उन सबको अपौरुषेय मानना अनिवार्य हो जाता है। इन ग्रंथों में से हरेक में भगवान् ने तदितर अपौरुषेय धर्मग्रंथ के पारलौकिक वस्तुस्थिति के संबंध में दी हुई जानकारी से भिन्न, विसंगत और विरुद्ध ज्ञान दिया है। वेद कहते हैं, “स्वर्ग का इंद्र राजा है।” परंतु बाइबिल में वर्णित स्वर्ग में इंद्र का पता डाकियों को भी ज्ञात नहीं। देवपुत्र यीशू की कमर में समस्त स्वर्ग की चाभियाँ हैं। देव और देवपुत्र दोनों एक ही हैं। Trinity in Unity, Unity in Trinity. कुरान के स्वर्ग में ‘ला अल्ला इलिल्ला और मोहम्मद रसूलल्ला’ इससे अधिक तीसरी बात नहीं कही गई। रेड इंडियनों के स्वर्ग में सूअर-ही-सूअर हैं और घने जंगल हैं। परंतु मुसलिम पाक स्वर्ग में ऐसी ‘नापाक चीज’ दवाई के लिए भी नहीं मिलेगी। और इन सबका कहना हैं कि वे कहते हैं वही असली स्वर्ग है। प्रत्यक्ष भगवान् ने यह बताया, इतना ही नहीं अपितु मोहम्मद आदि पैगंबर ऊपर जाकर, रहकर, स्वयं देखकर लौट आए हैं और उन्होंने भी यही बातें कही हैं। यही स्थिति नरक की। पुराण में मूर्तिपूजक और याज्ञिक तो क्या, परंतु यज्ञ में मारे हुए बकरे भी स्वर्ग में जाते हैं ऐसा उनका मृत्यु के बाद का पक्का पता दिया हुआ है। किंतु कुरान शपथ लेकर कहता है कि नरक में स्थान, कितनी ही भीड़ हो जाए यदि किसी के लिए आरक्षित किए गए हों तो मूर्तिपूजक, अग्निपूजक सज्जनों के लिए। मृत्यु के बाद उनका पक्का पता नरक। शब्दों-शब्दों में व्याप्त इस प्रकार की विसंगतियाँ कितनी दरशाएँ? ये सारे धर्मग्रंथ अपौरुषेय हैं, अतः वे यथार्थ हैं ऐसा समझें तो उनमें वर्णित पारलौकिक वस्तुस्थिति, शब्दप्रमाण से भी सिद्धांतभूत सिद्ध नहीं होती। अन्योन्यव्याघातात् ! ये सब बातें मनुष्य द्वारा कल्पित हैं इसलिए झूठी मान लीं तो वे फिर सिद्धांतभूत ठहरती नहीं — वदतोव्याघात। और यदि झूठ मानते हैं तो वह वैसा और यह ऐसा क्यों, यह तय करने के लिए उनके स्वयं के शब्दों के अलावा दूसरा प्रमाण ही न होने के कारण वे सिद्धांत सिद्ध नहीं होते — स्वातंत्र्यप्रमाणाभावात् !
अतः प्रत्यक्ष, अनुमान या शब्द इनमें से किसी भी प्रमाण से पारलौकिक वस्तुस्थिति का आज उपलब्ध होनेवाला वर्णन सिद्ध नहीं होता, इसलिए उसे सनातन धर्म, त्रिकालाबाधित और अपरिवर्तनीय सत्य, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वैसे किसी भी विधेयक को वैसा सिद्धांत स्वरूप आते ही उसे भी हमारे सनातन धर्म में समाविष्ट किया जाएगा। आज यह विषय प्रयोगावस्था में है और आप्तों के या अपौरुषेय ग्रंथों के भी, तद्विषयक विधान सिद्धांत न होकर, उसके संबंध में यथासंभव कलृप्ति (हायपोथेसिस) हैं। परिकल्पना या अनुमान है। उसे सत्याभास कह सकते हैं, सत्य नहीं। उसे जानने का प्रयत्न इसके बाद भी होना चाहिए, तथापि उसके संबंध में यथासंभव परिकल्पनाएँ कर वह स्वर्गीय ऋतु और अनृत (असत्य) प्राप्त करने के लिए इतना अतिमानुषिक प्रयत्न करके भी किसी भी दिशा में पता नहीं लग रहा यह सिद्ध किए बिना और अपने देवतुल्य अवतारों ने अखिल मानवजाति की कोख धन्य की, इसलिए नचिकेता से लेकर नानक तक- इन पुण्य श्लोकों के और प्रेषितों के या श्रुति के और स्मृति के हम मानवों पर जो विभिन्न प्रकार से उपकार हुए हैं उन्हें कभी लौटाया नहीं जा सकता। इतनी कृतज्ञता व्यक्त किए बिना हमें आगे के अक्षर लिखना संभव नहीं।

अंत में रह गए धर्म के अंतिम दो अर्थ-आचार और विधि। इन दोनों अर्थों में ‘धर्म’ शब्द के साथ सनातन विशेषण नहीं लगाया जा सकता। मनुष्य के जो ऐहिक व्यवहार उसके पारलौकिक जीवन को उपकारक हैं ऐसा समझा जाता था, उसे हम ‘आचार’ कहते हैं। अर्थात् उपरिनिर्दिष्ट पारलौकिक जीवन के संबंध में अस्ति पक्षी या नास्ति पक्षी अभी कोई भी सिद्धांत मनुष्य को ज्ञात न होने के कारण उसे कौन सा ऐहिक आचार उपकारक होगा यह कहना संभव नहीं। हिंदू के ही नहीं अपितु मुसलिम, क्रिश्चियन, पारसी, यहूदी आदि सभी धर्मग्रंथों में कर्मकांड का आधार ऐसा रेत का ढेर है। ‘क्ष’ भू यह द्वीप या गाँव, वीरान या बंजर, पूर्व में या उत्तर में, है या नहीं यह बात भी जहाँ निश्चित नहीं वहाँ उस ‘क्ष’ भूमि में सुख से रह सके, इसलिए किस मार्ग से जाएँ और कौन सा खाना-पीना वहाँ उपयुक्त होगा इसके बारीक नियम भी अपरिवर्तनीय निश्चित करना कठिन काम है। अतः किस ऐहिक आचार से परलोक में कौन सा उपयोग होता है ऐसा बतानेवाला कोई भी नियम आज सनातन धर्म, शाश्वत अपरिवर्तनीय और अबाधित नियम ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रश्न है विधि (कानून) का और मानव-मानव के बीच शिष्ट • व्यवहार का। इसको स्मृति में यद्यपि ‘एष धर्मस्सनातनः ‘कहा है तो भी वह सर्वथैव परिवर्तनीय था और होना चाहिए था। स्मृतिग्रंथों से भी सत्यादि युग के सनातन धर्म की कुछ बातें कलिवर्ज्य मानकर त्यागी गईं। उसी प्रकार ‘एष धर्मस्सनातनः’ को अगले अध्याय से आपद्धर्म के नाम पर निकाल दिया जाता है। यानी क्या कहें ? मतलब यह कि आपद् या संपद् के प्रसंग में अथवा युगभेद के कारण परिस्थिति भेद होने के कारण विधि बदलना ही उचित होता है। इसलिए वे अपरिवर्तनीय सनातन नहीं, परंतु अपरिवर्तनीय ही हैं। मनु ने राजधर्म में युद्ध नीति के जो सनातन धर्म बताए हैं उनमें चतुरंग दल का सविस्तार उल्लेख है, परंतु तोपखाने का या वैमानिक दल का नामनिर्देश भी नहीं। और सैन्य के अग्रभाग में शौरसेनी लोग होने चाहिए ऐसा कहा है जो मनु के समय में हितावह था इसलिए कहा गया है; फिर भी इन नियमों को अपरिवर्तनीय सनातन धर्म समझकर यदि हमारे सनातन धर्म संघ आज भी केवल धनुर्धरों को आगे रखकर और आठ घोड़ों का रथ सजाकर किसी यूरोप के अर्वाचीन महाभारत के शत्रु को डराने हेतु श्रीकृष्ण भगवान् का ‘पांचजन्य’ शंख बजाते हुए जाएँ तो केवल पांचजन्य करते हुए यानी चिल्लाते हुए उन्हें लौटना पड़ेगा। यह क्या कहने की बात है ? हिंदू सेना के अग्रभाग में मनुनिर्दिष्ट शौरसेनीय आदि सैनिक होते थे जब तक मुसलमान हिंदुओं को धूल चटाते हुए आगे बढ़ते थे। परंतु ‘मनुस्मृति’ में जिनका नामोल्लेख भी नहीं ऐसे मराठे, सिख, गुरखे जब हिंदू सेना के अग्रभाग को सँभाले रहे तब उन्हीं मुसलमानों को धूल चटाई। रूढ़ि, निर्बंध, आचार ये सब मानव मात्र के बीच व्यावहारिक नियम हैं जिन्हें परिस्थिति के अनुसार बदलना पड़ता है। जिस स्थिति में जो आचार या निर्बंध मानवों की धारणा हेतु या उद्धार के लिए आवश्यक होगा, हितप्रद होगा, वह उसका उस स्थिति का धर्म, आचार, निर्बंध आदि होगा। ‘नहि सर्वहितः कश्चिदाचारः सम्प्रवर्तते ।। तेनेवान्यः प्रभवति सोऽपरो बाधते पुनः ॥’

(म.भा. शांतिपर्व)

सारांश

१. जो सृष्टि नियम विज्ञान को प्रत्यक्षनिष्ठ प्रयोग के अंत में संपूर्ण अबाधित, शाश्वत सनातन दिखाई दिए, वे ही सच्चे सनातन धर्म हैं।

२. पारलौकिक वस्तुस्थिति का ऐसा प्रयोगसिद्ध ज्ञान हमें बिलकुल नहीं हुआ है। अतः यह विषय अभी भी प्रयोगावस्था में है ऐसा मानकर उसके संबंध में अस्ति-रूप या नास्ति-रूप कुछ भी ‘मत’ कर लेना अनुचित है। उस पारलौकिक प्रकरण में नाना युक्तियाँ बतानेवाले कोई भी धर्मग्रंथ अपौरुषेय या ईश्वरदत्त न होकर मनुष्यकृत या मनुष्यस्फूर्त हैं। उनकी युक्तियाँ प्रमाणहीन होने से उन्हें सनातन धर्म शाश्वत सत्य नहीं कह सकते।

३. मनुष्य के समस्त ऐहिक व्यवहार, नीति, रीति, निर्बंध ये उसके लिए इस जगत् में हितप्रद हैं या नहीं, इस प्रत्यक्षनिष्ठ कसौटी से ही तय करने चाहिए। उनको व्यवहार में लाना चाहिए, बदल करना चाहिए। ‘परिवर्तिनि संसारे’ ये मानवी व्यवहार धर्म सनातन होना संभव नहीं। इष्ट नहीं। ‘महाभारत’ में उचित ही कहा है कि ‘अतः प्रत्यक्षमार्गेण व्यवहारविधि नयेत्।’


– वीर सावरकर

( विज्ञाननिष्ठ निबंध)

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