आंध्रप्रांतीय भारतवीर श्रीराम राजू जी की यह जीवनी वीर सावरकर जी द्वारा लिखित है।
आंध्रप्रांतीय भारतवीर श्रीराम राजू
बुरे दिनों में सद्गुणों की भी निंदा की जाती है। स्वातंत्र्य काल के गुण पराधीन काल में अपराध का रूप ले लेते हैं। अंधे कुएँ में फँसे हम कूपमंडूक इन स्वातंत्र्य वीरों के कृत्य प्रतिकूल रूप में दिखाई दें यह स्वाभाविक नहीं अपरिहार्य है। फिर भी विद्यमान परिस्थिति एवं न्यायचक्र के पहिए के नीचे दबा हमारा मन, कभी-कभी उससे बाहर निकल आता है और निरपेक्ष वस्तु-मूल्य दिखानेवाले गुणज्ञता के पवित्र वातावरण में कुछ काल ही सही वह संचार करने लगता है। मन को कौन और कैसे सजा दे सकता है? हम स्वयं भी अपने मन पर नियंत्रण नहीं कर सकते। यह बरबस हमारे काबू से बाहर होकर हमें मुँह चिढ़ाता है और पवित्रता के ऊँचे आसमान में उड़ने लगता है।
हमारी भी यही स्थिति हुई जब हमने कहीं पर श्रीराम राजू के बारे में पढ़ा। मन कल्पना के पंख लगाकर उड़ने लगा।
हमने अपने मन से कहा, ‘अरे मूर्ख! श्रीराम राजू तो बागी है। प्रचलित राजसत्ता के कानून उसे अपराधी मानते हैं। अहिंसाकाल के इस युग में वह अपराधी माना जाएगा। आज के महात्मा उसे गुमराह वीर कहेंगे। और अगर वह पकड़ा गया तो राजसत्ता के न्यायाधीश उसे प्राणदंड की सजा देंगे। ऐसे अपराधी, अत्याचारी, पागल, दंडनीय श्रीराम राजू को तू सराहना चाहता है ?’
वह अपराधी नहीं है
पर क्षण भर मुक्त उड़ान करने को उद्यत मन मुँह चिढ़ाकर कहने लगा, ‘पगले, जितना और जैसा बागी श्रीराम राजू है, उतना ही और वैसा ही बागी जॉर्ज वाशिंगटन भी है, जिसने अमेरिका को इंग्लैंड के लौह शिकंजे से छुड़ाया या फिर डी. वलेरा है, जो आयरलैंड को इंग्लैंड के पंजे से छुड़ाना चाहता है। इंग्लैंड के राजा को फाँसी देने की इच्छा करनेवाला क्रॉमवेल भी वैसा ही सिरफिरा बागी है। उनके स्तुति – स्तोत्र तो तू गाता है, उन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहता है और तुझे बगावत दीखती है तो सिर्फ श्रीराम राजू में? पारतंत्र्य-सुलभ दासवृत्ति के कारण क्या कानून के भय से तू उसे बागी ठहराएगा? चाहे उसकी श्रेष्ठता को तू मान्य न कर, पर इस तरह की कायरतापूर्ण बात तो न कर तू अपनी कायरता को छिपाने के लिए उसे । तू बागी कह रहा है। पर वह न तो बागी है, न ही जागतिक गुणग्राहकता की कसौटी पर अपराधी है।
“अगर तू उसे अत्याचारी कहेगा तो तू स्वयं भी अत्याचारी साबित होगा। रावण, कंस, कौरव, मुगल, मुसलमान आदि लुटेरे जब दूसरों को मार डालते हैं या मार डालने को उद्यत होते हैं तो उन्हें अत्याचारी कहते हैं, पर लोककल्याण की इच्छा से प्रेरित होकर और अपरिहार्य एवं अनिवार्य साधन समझ श्रीराम, श्रीकृष्ण, छत्रपति शिवाजी जैसे लोग जब इन हिंसक और अत्याचारियों को प्राणदंड देते हैं तब उन लोककल्याणकारियों को अत्याचारी कहना, उस शब्द का अर्थ न समझने की मूर्खता है। यह अहिंसापुराण एवं अत्याचारशास्त्र तू अपनी सड़ी-गली मूर्खता में ही बंद करके रख। न्यायपीठ पर बैठे न्यायाधीश भी ऐसे लोगों को प्राणदंड की सजा देते हैं, क्या इसीसे तू उन्हें अन्यायी और अपराधी मानेगा? अगर जॉर्ज वाशिंगटन और डी. वलेरा को अपने अंगीकृत कार्य में यश न मिलता तो वे भी अपराधी माने जाते। इसलिए श्रीराम राजू को अपने काम में अधिक यश नहीं मिला, इसीसे उसे अपराधी मानना सत्यशोधक न्यायाधीश की सोच नहीं है। वह तो तुम्हारी कायरता, पौरुषहीनता एवं धूर्तता की निशानी है।”
मुझे इस तरह लतियाता और लज्जित करता मेरा मन ऊँचा उड़ गया। अपने मन एवं विचारों में रची-बसी श्रीराम राजू की कहानी मैं पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। उनके उदाहरण को दोहराया जाए या नहीं यह प्रश्न यहाँ अप्रस्तुत है। यहाँ सिर्फ उनके चरित्र का वर्णन है। अतः उसके अनुकरण का प्रश्न ही यहाँ नहीं उठता।
प्राचीन परंपरा
भारत के सभी प्रांतों में ऐसे वीर पुत्रों ने जन्म लेकर भारत माता का गौरव बढ़ाया है। इन्होंने संकटग्रस्त एवं अभागी हिंदू जाति की तन-मन-धन से सेवा की है। इसीलिए निराशा से निस्तेज नेत्रों में आशा की किरण फूटती है। और उस आलोक में इस जाति के कल्याणमय भविष्य का मार्ग दिखाई देता है। आज हम ऐसे ही एक वीर पुरुष की कहानी कह रहे हैं जो अभी भी मृत्यु के रास्ते जाकर स्मृतिसृष्टि के परदे के पीछे नहीं गया है। प्रभु रामचंद्र ने रावणी अत्याचार को रुधिर की महानदी में डुबो दिया। पांडवों ने कौरवी अत्याचार को मृत्यु के कराल मुख में फेंक दिया। निराशा के दावानल में झुलसते हुए भी महाराणा प्रताप ने इसलामी सत्ता के सिंहासन से सिंह पराक्रम से एक-दो नहीं लगातार इक्कीस वर्ष टक्कर ली। मरते समय भी वह नतमस्तक न हुए। हिंदू जाति के गौरव का यशोध्वज, उसने स्वातंत्र्याकांक्षा के आकाश में ऊँचा उठाया। श्री शिवछत्रपति ने मुगली रावणसत्ता को धूल में मिलाकर हिंदू पदपादशाही का विजयप्रासाद बनाया। श्री संभाजी राजा ने अपने तेजस्वी, स्वतंत्र और पौरुष-संपन्न रक्त से उस हिंदू प्रासाद का उदित नारायण लाल सुर्ख चमकता तेज चढ़ाया। इक्कीस वर्षीय छत्रपति राजाराम ने युद्धयज्ञ में प्राण अर्पित कर उस स्वातंत्र्य प्रासाद को अमर बनाया। इसके बाद बाजीराव, नाना साहब, भाऊ साहब माधव राव, फड़नवीस, शिंदे आदि सभी महाराष्ट्र-वीरों ने उस स्वराज्य को साम्राज्य पद का गौरव दिलाया। दुर्भाग्य से यह मंदिर गिरने को हुआ तब उसे फिर से खड़ा करने के लिए नाना साहब, लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वासुदेव बलवंत आदि वीर नर-नारी लड़ते-झगड़ते स्वातंत्र्य समर में आत्माहुति देते रहे। आंध्रप्रांतीय भारतवीर श्रीराम राजू भी इन्हीं वीरों की मालिका का चमकता एक पूर्ण भक्त मणि है।
बचपन एवं शिक्षा
इस भारत-भक्त का जन्म आंध्र प्रांत के भगलू गाँव में एक सम्मान्य क्षत्रिय परिवार में हुआ था। यह गाँव पश्चिम गोदावरी जिले में है। जिन वीर पुरुषों ने विश्व में बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ कीं, महान् साम्राज्य स्थापित किए, अपने-अपने देशों को परतंत्रता के घोर नरक से उबारकर स्वतंत्रता के स्वर्ग का स्वामी बनाया, ऐसे बहुत से महापराक्रमी महान् पुरुषों की तरह ही यह अपना श्रीराम आधुनिक दृष्टि से विद्यालंकृत नहीं हुआ है। अलग-अलग गाँवों में शिक्षा लेते हुए श्रीराम ने किसी तरह पाँचवीं कक्षा तक विद्या प्राप्त की। वह गायन-कला में प्रवीण था तथा उसकी गणना होनहार कवियों में होती थी। लगभग इसी समय यह लगने लगा था कि वह भविष्य में कोई अनोखा काम करेगा। उसके अनोखे गुणों के अतिरेक को देखते हुए महात्मा गांधी ने उसे पागलपन की हद को छूनेवाला मूर्ख कहा था। बाद में एक में जगह उन्होंने ही कहा कि- I mistook them (the signs of greatness) for signs of stupidity bordering on madness: मेरी उस समय की हुई परीक्षा गलत निकली। असामान्य कर्तृत्वज्ञान, महान् पुरुषों के बचपन में ही उनकी महत्ता का प्रतिबिंब उनकी हर कृति में, हर हरकत में झलकता है। श्रीराम अपनी शिक्षा की तरफ ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था। इसके लिए गांधीजी ने उसे खूब बुरा-भला कहा। श्रीराम ने भी सच्ची शिक्षा क्या होती है और विद्यमान शिक्षा किस तरह निरुपयुक्त है, इसका गांधीजी को बहुत विवरण दिया, पर श्रीराम की शिक्षा गीता गांधीजी के पल्ले नहीं पड़ी। श्रीराम ने गांधीजी को बार-बार यह तपोवाणी सुनाई कि ‘मैं संन्यास लेकर अपने देशबांधवों का उद्धार करूँगा।’ बाद में गांधीजी ने कहा, “हाय! उस समय उन शब्दों की महत्ता मैं जान न सका। ‘
कुछ समय बाद हमारा श्रीराम पढ़ाई के लिए नरसापुर गया। वहाँ जाने पर उसे ज्योतिषशास्त्र, हस्तसामुद्रिक, अश्वारोहण आदि में रुचि पैदा हुई। उसके बचपन के बारे में हमें इससे अधिक जानकारी नहीं है।
संन्यासी श्रीराम
सन् १९१७ के आरंभ में श्रीराम ने संन्यास लिया। सन् १९९८ में वे आंध्रप्रांत के ‘एजंसी’ भाग के सांबारी पर्वत पर तपस्या करने लगे। तपस्या के बाद वे वहीं रहने लगे। वहाँ के स्थानीय लोग उनका बहुत आदर करने लगे। स्वाभाविक और स्वयंस्फूर्ति से वे श्रीराम को पूजने लगे। उनका आहार सिर्फ दूध और फल था। सन् १९२० में वे पैदल नासिक यात्रा पर गए।
राजू का लोगों पर प्रभाव
राजू को अनत्याचारी, असहयोग आंदोलन में विश्वास नहीं था। वे संन्यासी भले ही हुए हों, उनकी उक्ति और कृति क्षात्रवृत्ति से ही भरपूर थी। गांधीजी के कार्यक्रमों में उन्हें अच्छा लगा था तो सिर्फ ब्रिटिश न्यायालय एवं शराबखानों का बहिष्कार। उन्होंने गोदावरी तथा विजगापट्टन जिलों में शराबबंदी का आंदोलन चलाया। अपने निर्मल एवं उदात्त चरित्र तथा आकर्षक भक्तिभाव से जनसाधारण के मन को उन्होंने अपनी ओर खींच लिया था। उनका शब्द वहाँ के लोगों के लिए वेदवाक्य था। श्रीरामजी का प्रभावी वक्तृत्व जनता के दिल में उतर जाता। वे आज्ञापालन के लिए आतुर हो उठते। श्रीराम का आदेश था कि वे इंग्लिश न्यायालय में पाँव न रखें तथा शराब की एक बूँद भी न चखें।’ उनकी यह पुकार प्रदेश में आग की तरह फैली। पूरे एजंसी प्रदेश में एक भी व्यक्ति ऐसा न रहा जिसने श्रीराम का शब्द न सुना हो, न माना हो। श्रीराम के कारण उस प्रदेश के लोगों में एकता पनपी। नए विचार-क्रांति के युग का प्रादुर्भाव हुआ। लोगों ने शराब छोड़ दी। न्यायालय सूने पड़े। गाँव-गाँव में पंचायत सभाएँ स्थापित हुईं और सभी का न्याय वहीं होने लगा। श्रीराम को स्वदेशी से प्रेम था इसीलिए उन्होंने अपने सैनिकों को खादी के स्वदेशी गणवेष दिए थे। श्री रल्लापल्ली कसन्ना नामक एक आदमी पर यह अभियोग चलाया गया था कि उसने श्रीराम के सैनिकों को खाकी खादी की पूर्ति की। देवालय को ही अपना निवास स्थान बना श्रीराम वहाँ तपानुष्ठान करते थे। उनके दर्शन के लिए दर्शनार्थियों की भीड़ लग जाती। श्रीरामजी के स्फूर्तिप्रद, प्रेरणादायक उपदेश सुनकर वे सारे मंत्रमुग्ध हो जाते। श्रीराम के आध्यात्मिक उपदेश में देशभक्ति का पुट होता था। लोग बड़ी आतुरता से उनके उपदेशामृत का पान करते। पच्चीस वर्ष की आयु का यह जाज्वल्य, देशभक्त संन्यासी अपनी ओजस्वी वाणी से अशिक्षित समझी जानेवाली कोया जाति की जनता पर अकल्पनीय प्रभाव डाल रहा था। हम ‘सुशिक्षितों’ की ‘सुशिक्षा’ ही हमें भावनाहीन निःसत्व अतः कर्मशून्य बनाती है। पर ये अशिक्षित लोग प्राय: पौरुष-संपन्न और भावना बल से युक्त होते हैं। वहाँ देर होती है सिर्फ उनके अंत:करण को छूनेवाले मंत्र की। एक बार वे चेत गए कि कर्मशक्ति के तेज से जलने लगते हैं। फिर तो उन्हें छूने की हिम्मत करनेवाला अन्यायी हाथ जलकर राख हो जाता है। कोया लोगों के असंतोष से हिंदुस्थान के पाशविक सत्ताधारी हिल उठे। तुरंत घोषणा हुई, ‘अरे, पकड़ो उस श्रीराम को।’ उस राजद्रोही, साम्राज्यशत्रु को नष्ट कर डालो। सन् १९२२ में खबर फैली कि राजू ‘बगावत’ को बढ़ावा दे रहा है। ‘असहयोग’ कर रहा है। पूर्व गोदावरी जिले का पुलिस सुपरिटेंडेंट दौड़ पड़ा राजू के निवास की तरफ। वहाँ जाकर उसने यही देखा कि श्रीराम तपश्चर्या में लीन है। श्रीराम को विजगापट्टन जिले के नृसिंहपट्टन में छह सप्ताह नजरबंद (Interned) रखा और बाद में रिहा किया गया। फिर भी पुलिस ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। श्रीराम ने वहाँ के डिप्टी कलेक्टर फजलुल्ला को पुलिस यंत्रणा से पीछा छुड़ाने का विनती पत्र दिया। कहते हैं कि आगे कभी श्रीराम और फजलुल्ला मिले। फजलुल्ला ने मद्रास सरकार को पत्र भेजा कि वह श्रीराम को इकतीस बीघा जमीन और खेती की सहूलियतें देकर सहायता करे। डिप्टी कलेक्टर की बात मानकर मद्रास सरकार ने श्रीराम को खेती योग्य जमीन दे दी। इस तरह उस देशभक्त को खेतिहर बनाने की कोशिश की गई।
रीजंसी में असंतोष
पर श्रीराम के अंत:करण में होमकुंड भड़क उठा था, जिसमें हिंदुस्थान को ब्रिटिश सत्ता के हाथों से छुड़ाकर स्वतंत्र करने की प्रखर महत्त्वाकांक्षा अग्निशिक्षा बनकर जल रही थी। कुत्ते की तरह फेंकी गई हड्डी की तरह श्रीराम की तरफ तीस बीघा जमीन का टुकड़ा फेंका गया था। लेकिन क्या इसीसे पालतू बनकर यह महत्त्वाकांक्षी वीर युवक लांगूलचालन करने लगता? नहीं, यह तो संभव ही नहीं था। इस स्वाभिमानी स्वतंत्र पुरुष ने गीता पढ़ी थी, स्वधर्म क्या है, यह जान लिया था। उस प्रदेश की स्थिति अनुकूल थी और उसने उसका उचित लाभ भी उठाया। भारतमाता के हित का उसने पूरा ध्यान रखा। उसने गुडेम तहसील को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। अन्य स्थलों की तरह उस रीजंसी में जहाँ ब्रिटिश सरकार का आदेश नहीं चलता, वहाँ जबरदस्ती का कारोबार चलता है। उसी संथाल परगने में, जो वहाँ का चालू नाम था, वहाँ डायर की सत्ता थी। उस जंगली इलाके के संथाल आदि लोगों के सभी हक सरकार ने छीने थे। वे रसोई के लिए लकड़ियाँ भी नहीं काट सकते थे। पहले की तरह उन्हें गायों के लिए चारा इकट्ठा करने की सहूलियत न थी। इस तरह की अन्यायुक्त बातों के कारण रीजंसी में भयानक असंतोष था।
जनसंग्रह
इस तरह क्रांति का बीज बोने के लिए श्रीराम को उत्कृष्ट जमीन मिली थी। उन्होंने एकनिष्ठ अनुयायी और समर्थ कार्यकर्ता जुटाए। लोगों के मन में स्वराज्य की तीव्र आकांक्षा की ज्योति जलाई। श्रीराम राजू ने उनकी सामान्य आकांक्षाओं को महत्त्वाकांक्षा का ज्वलंत रूप दिया। वहाँ के लोगों के मन में श्रीराम राजू के प्रति गहरी निष्ठा थी। वे उनके नेतृत्व में स्वराज्य के लिए जान देने-लेने के लिए सहज ही तैयार हो गए।
स्वराज्य प्राप्ति का मार्ग
पुलिस के मन में श्रीराम का डर बैठ गया था। वह जहाँ भी जाता, पुलिस जान के भय से शस्त्रास्त्र, बंदूकें एवं बारूद छोड़कर भाग खड़ी होती थी। एक बार एक अहिंसक असहयोगी ने श्रीराम से पूछा था, “तुम किस मार्ग से स्वराज्य प्राप्त करोगे ?” श्रीराम का उत्तर था, “इस साम्राज्यशाही से बिना युद्ध के स्वराज्य मिलना असंभव है।” तब उस अहिंसक स्वराज्य योद्धा ने आगे पूछा था, “तो क्या यह संभव है ?” इनका उत्तर था, “हाँ, हाँ! क्यों नहीं? मेरे पास आदमियों की कमी नहीं। कमी है तो सिर्फ शस्त्रास्त्र एवं बारूद की।”
छोटा सा कैसर
साम्राज्यशाही ने श्रीराम का नामाभिधान किया था, ‘गुडाम का छोटा कैसर’। बीस साल का युवक, विशाल साम्राज्य के सत्तापक्ष को चुनौती दे रहा था। यह युवक पहले से ही घोषित करता कि ‘मैं अमुक स्थान पर अमुक समय पर छापा मारूँगा।’ फिर भी उस छापे में वहाँ के ब्रिटिश-सिंह की गरदन के बाल झुलस जाते। श्रीराम का सैन्य था कोया लोग, उसके शस्त्र थे धनुष-बाण, रणक्षेत्र था पहाड़ी घाटियाँ और दर्रे, उसकी रसद थी देहात के स्वदेशप्रेमी, श्रद्धालु लोगों द्वारा प्रेम से दी गई सब्जी-रोटी। इस प्रकार की तैयारी से श्रीराम लड़ते थे आधुनिक शस्त्रास्त्रों से लैस साम्राज्यवादी विपक्ष से यह लड़ाई विषम थी। फिर भी यह साहसी वीर अपने दैवी साहस एवं असीम प्रेमनिष्ठ अनुयायियों के बूते पर यह लड़ाई लड़ रहा था।
ब्रिटिश सिंह से लड़ाई
अत्यंत कुशल सेनापति शत्रु के लिए हानिकारक तथा स्वपक्ष के लिए अनुकूल युद्धक्षेत्र का चुनाव करता है। स्वराज्य प्राप्ति के लिए उत्सुक श्रीराम ने भी यही किया। उसने ब्रिटिश सिंह पर छह बार आक्रमण किया। हर हमले में ब्रिटिश सेना को छठी का दूध याद आया। उसने धूल चाटी उस प्रांत का सेनाबल कम पड़ने से मालाबार से सैन्य दल मँगाना पड़ा और आसाम से भी चुनिंदा सेना मँगानी पड़ी। पेडवसल गाँव की लड़ाई में अंग्रेजी सेना के दो यूरोपियन अधिकारी मारे गए। अन्य बहुत से घायल हुए। अंतिम सातवीं और आठवीं लड़ाई में श्रीराम पर अचानक हमला हुआ। बड़ी वीरता से लड़ते-भिड़ते हुए उसने आक्रामकों से पिंड छुड़ाया। उसे रणक्षेत्र छोड़कर जाना पड़ा। इस शूर, साहसी, सैन्य-संचालन कुशल, राष्ट्रप्रेमी युवक संन्यासी को यह विषम लड़ाई बीच ही में छोड़ देनी पड़ी। निराशा के अंधकार में विलुप्त हो जाना पड़ा। पर स्वदेशप्रेम के लिए उसने जो दिव्य स्वार्थ-त्याग किया, उसे देखते हुए किसकी आँखें सजल न होंगी?
श्रीराम, तुम्हारे मन में मातृभूमि का उद्धार करने की छटपटाहट थी। उसके लिए तुमने सर्वस्व त्याग किया। अधिक-से-अधिक प्रयत्न किए। अपने दिव्य स्वार्थ-त्याग के दीप्तिमान उदाहरण से तुमने हम दुर्बलों को स्वतंत्रता प्राप्ति का मार्ग दिखाया। श्रीराम, भगवान् करे कि मृत्यु की गोद में सोने से पहले तुम अपनी आँखों से देख सको कि हम हिंदुओं ने मातृभूमि को स्वतंत्र किया है। स्वतंत्र हिंदुस्थान के भावी इतिहासकार तुम्हें न भूलें, इसीलिए हे देशवीर, मैं तुम्हारी यह पवित्र स्फूर्तिदायक जीवनी लिख रहा हूँ। हे वीर श्रीराम, तुम्हारा नाम चिरस्मरणीय हो, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंदनीय रहे !!
– वीर सावरकर
( सावरकर समग्र वाङ्ग्मय खंड – ५ )
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