“ राष्ट्र पर्वत, नदियाँ, पहाड़ियाँ आदि नहीं है। सह्याद्रि, हिमालय, गंगा को राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। विश्व में जल, मिट्टी, पहाड़, नदियाँ सब जगह हैं। इंग्लैंड की मिट्टी और यहाँ की मिट्टी में गुणों की दृष्टि से यहाँ की मिट्टी श्रेष्ठ है ऐसा नहीं है। पर इंग्लैंड की मिट्टी की अपेक्षा यहाँ की मिट्टी ही हमें प्रिय और पवित्र लगती है। क्योंकि यहाँ की मिट्टी हमारे उपयोग की मिट्टी है। यहाँ की मिट्टी पर हमारे पूर्वज जीवित रहे, हम जी रहे हैं और हमारे पुत्र-पौत्र जीवित रहनेवाले हैं – यह हमारी भावना है। इसीलिए यहाँ की मिट्टी हमें पवित्र लगती है।
नाती का रूमाल पड़ा मिले तो दादी उसे उठाकर रखती है। यह मेरे नाती का रूमाल है यह बात उसे रूमाल की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण लगती है। हमें अपने घर से ऐसे ही स्नेह होता है। अपने से अच्छे अनेक दूसरे घर होते हैं, पर अपना अपना है, पर केवल घर, पर्वत, मिट्टी ये वस्तुएँ राष्ट्र नहीं हैं। हम सबकी संतति, भूत, भविष्य और वर्तमान की संतति का नाम राष्ट्र है। जो हो गए वे पुरखे (पूर्वज) और आगे आनेवाली संतति-वंशज, इनसे परंपरा से, प्रेम से, धर्म से, इतिहास से, बँधा हुआ जो समुदाय है उसका नाम राष्ट्र है। ”
संदर्भ – सावरकर समग्र -७ ( पृष्ठ : ३३१- ३३२ )