हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म- ये दोनों ही शब्द हिंदू शब्द से उत्पन्न हुए हैं। अतः उनका अर्थ ‘सारी हिंदूजाति’ ऐसा ही किया जाना आवश्यक है। हिंदू धर्म की परिभाषा के अनुसार, यदि कोई महत्त्वपूर्ण समाज उसमें सम्मिलित न किया जाता हो अथवा उसे स्वीकारने से हिंदुओं के घटकों को हिंदुत्व से बाहर किया जा रहा हो, तो वह परिभाषा मूलतः ही धिक्कारने योग्य समझी जानी चाहिए। ‘हिंदू धर्म’ से हिंदू लोगों में प्रचलित विविध धर्ममतों का बोध होता है। हिंदू लोगों के विभिन्न धार्मिक विचार कौन से हैं अथवा हिंदू धर्म क्या है, इसे निश्चित रूप से समझने के लिए सर्वप्रथम ‘हिंदू’ शब्द की परिभाषा निश्चित करना आवश्यक है। जो लोग केवल ‘हिंदुओं की पूरी तरह से स्वतंत्र विभिन्न धार्मिक सोच-समझ’ इतना ही अर्थ मन में लेकर, ‘हिंदू धर्म’ शब्द से दर्शाए जानेवाले महत्त्वपूर्ण अर्थ की ओर ध्यान देते हुए हिंदू धर्म के आवश्यक लक्षण निश्चित करने का प्रयास करते हैं, उन्हें इसी बात को लेकर मन में संभ्रम उत्पन्न हो जाता कि किन लक्षणों को आवश्यक माना जाय।
क्योंकि उन्होंने जिन लक्षणों को आवश्यक माना है, उनके सहारे वे सभी हिंदूजातियों का समावेश ‘हिंदू’ शब्द में नहीं कर सकते। इसके कारण वे क्रोधित होकर, वे जातियाँ ‘हिंदू’ कभी थीं ही नहीं, ऐसा कहने का दुस्साहस करते हैं, उनकी परिभाषा में इन जातियों का समावेश नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह संकीर्ण है, ऐसा कहना उचित नहीं है। जिन तत्त्वों को हिंदू धर्म कहना चाहिए ऐसा ये सज्जन समझते हैं, वे तत्त्व इन जातियों द्वारा या तो स्वीकार नहीं किए जाते अथवा वे उनका पालन नहीं करतीं, इसलिए ‘हिंदू कौन है’- इस प्रश्न का उत्तर देने का यह तरीका सर्वथा विपरीत है। इसी कारण सिख, जैन, देवसमाजी जैसे अवैदिक मतों का पुरस्कार करनेवाले हमारे बांधवों में और प्रगतिक तथा देशप्रेमी आर्यसमाजियों में कुछ कटुता का भाव पैदा हो गया है।