प्रादेशिक एकता का अर्थ प्रदेश में निवास करनेवाले लोग-यही एकमेव राष्ट्रीयत्व के घटक हैं। यह मानने से राष्ट्रीय सभा के ध्येयवाद में मूलतः ही दोष उत्पन्न हुआ है। यह बात हिंदुस्थान के अर्वाचीन राजनीतिक इतिहास में प्रथम बार मैंने अपने नागपुर के अध्यक्षीय भाषण में प्रस्तुत की। जिस यूरोप से इस प्रादेशिक राष्ट्रीयता (Geographical Nationality) की कल्पना को कोई परिवर्तन किए बिना मूल स्वरूप में ही हिंदुस्थान के लिए लाने के पश्चात् वहाँ पर (यूरोप में) इस पर बड़ा आघात हुआ है तथा वर्तमान युद्ध ने मेरे प्रतिपादन को ही वास्तविक निरूपित कर उस कल्पना का संपूर्ण रूप से खंडन किया है।
प्रादेशिक एकता के जबरन जिस राष्ट्र को एक साथ बाँध दिया गया, वह नष्ट हो चुका है तथा यह ताश के महल जैसा धराशायी हो चुका है। संस्कृति, वंश, परंपरा आदि एकता करनेवाले सामान्य बंधनों से जुड़े न होने से तथा एकराष्ट्र के रूप में संकलित रूप से रहने की सामान्य प्रेरणा न होने के कारण प्रादेशिक एकता की अस्थिर व शिथिल रेत पर आधारित राष्ट्रीयत्व की कल्पना करते हुए विभिन्न समाज की खिचड़ी के समान राष्ट्र बनाने का कार्य करनेवालों को पोलैंड तथा चेकोस्लोवाकिया के उदाहरणों ने स्पष्ट रूप से सावधान कर दिया है। युद्धोत्तर संधि के समय बने हुए ये राष्ट्र प्रथम अवसर प्राप्त होते ही पृथक् हो गए।
जर्मन हिस्सा जर्मनी में मिल गया तथा एशियन भाग एशिया में; चेक, चेकोस्लोवाकिया तथा पोल पोलैंड में चले गए। सांस्कृतिक, भाषिक, वांशिक एवं तत्सदृश बंधन प्रादेशिक बंधनों की तुलना में अधिक प्रभावी सिद्ध हुए। यूरोप में गत तीन-चार शतकों में प्रादेशिक एकता के अभाव में भी वंश, भाषा, संस्कृति तथा इसी प्रकार के अन्य बंधनों की परिणति होकर एकजीव होने की इच्छाशक्ति उत्पन्न हुई। वे ही राष्ट्र गत तीन-चार शतकों में अपना स्वतंत्र राष्ट्रीय अस्तित्व तथा एकजीविता को बनाए रखने में सफल हुए हैं। उदाहरणार्थ, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल आदि।
एकजीव तथा स्वयंभू राष्ट्र निर्मिति के लिए अकेले या संयुक्त रूप से उपयोगी पड़नेवाले ऊपरी लक्षणों का विचार करने पर प्रतीत होता है कि हिंदुस्थान में हम हिंदू लोग एक स्वयंभू व स्थायी राष्ट्र ही हैं। हम लोगों की एक ही पितृभूमि है तथा हम लोगों को प्रादेशिक अखंडता भी प्राप्त है, परंतु इसके अतिरिक्त विश्व के अन्य क्षेत्रों में कदाचित् ही प्राप्त होनेवाली अपने समान पितृभूमि से समव्याप्त से पुण्यभूमि भी प्राप्त हुई है। इस प्रकार से हम लोगों की संस्कृति, धर्म, इतिहास, भाषा एवं वंश के प्रिय बंधन हैं तथा अगणित शतकों से चल रहे सहवास्तव्य और समिश्रण की परिणति होकर हम लोगों के एकजीव तथा स्वयंभू राष्ट्र का निर्माण हुआ है।
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक साथ और अखंडित राष्ट्रीय जीवन व्यतीत करने की इच्छाशक्ति उत्पन्न हुई। हिंदू राष्ट्र केवल युद्धोत्तर संधि के समय रचा गया कागजी राष्ट्र नहीं है। वह एक जीवंत तथा स्वयंभू राष्ट्र है एक अन्य तर्क का भी खंडन करना आवश्यक है, क्योंकि उसके कारण हम लोगों के कांग्रेसनिष्ठ बंधुओं को दिशा भूल होती रहती है।
राष्ट्रीय अस्तित्व प्रमाणित करने हेतु अखंडता उत्तरदायी है इसका अर्थ कदापि ऐसा नहीं होता कि उसमें विद्यमान विभिन्न पंथों में भाषा तथा वंश आदि में अंदरूनी भेदों का सर्वस्वी अभाव रहना चाहिए। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि उसकी राष्ट्रीय घटक के रूप में अन्यों जो भिन्नता है वह अंदरूनी भेदों की तुलना में पर्याप्त रूप से अधिक होती है।
ब्रिटेन, फ्रांस जैसे आज के एकजीव राष्ट्रों में भी धार्मिक, भाषिक, सांस्कृतिक, वांशिक आदि रूप में भेद दिखाई देते हैं तथा ये आपस में भेदों से पूर्णतः मुक्त नहीं हैं। सामुदायिक दृष्टि से कोई भी अन्य जन समुदाय से उनकी जो भिन्नता दिखाई देती है उसकी तुलना में विद्यमान उनकी एकता ही राष्ट्रीय अखंडता है।
हम हिंदुओं में हजारों अंदरूनी भेद होते हुए भी हम लोग धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, वांशिक, भाषिक तथा अन्य कई बंधनों से जुड़े हुए हैं। अंग्रेज, जापानी अथवा हिंदुस्थान के मुसलमान आदि की तुलना में निश्चित रूप से अधिक स्वतंत्र तथा एकजीव हैं। आज कश्मीर से मद्रास तक, सिंध से असम तक हम हिंदू लोग स्वयमेव राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा प्रकट करते हैं तो वह इसी कारण। इसके विपरीत जर्मनी के ज्यू की तरह भारत के मुसलमानों में सामान्यतः हिंदुस्थान के बाहर के मुसलमानों तथा उनके हितसंबंधों के लिए जितनी आत्मीयता में है वैसी आत्मीयता पड़ोस के हिंदुस्थान के लिए नहीं है।