बुर्के पर वीर सावरकर जी के विचार

“पंजाब में विधिमंडल में एक मुसलमान महिला प्रतिनिधि चुनकर आई। विधिमंडल की शपथविधि के समय वह जब सभागृह में आई तब उधर की प्रथा के अनुसार, शिष्टाचार के कारण बुरके में आई। एकांत स्थान देखकर बैठ गई। उनका मुखदर्शन तो असंभव ही था, परंतु सभा की पद्धति के अनुसार हस्तांदोलन करना भी मुश्किल हो गया। कुरान में बुरका पहनना चाहिए ऐसा उल्लेख है यह सत्य है और उस माननीय महिला की उस पोथीनिष्ठ भावना का सम्मान करना चाहिए। परंतु ‘मुसलिम स्त्रियों को देखें वे कितनी स्वधर्माभिमानी होती हैं।’ इस प्रकार उनकी प्रशंसा क्यों करनी चाहिए?

बुरका पहनने की पद्धति एक अज्ञानी, फालतू, विद्रूप रूढ़ि है। उसे छप्पन पोथियों में सराहा गया होगा तो भी आज त्यागना चाहिए। यह बात भारतीय मुसलमानों के ध्यान में न आई हो तो भी दुनिया के प्रगत मुसलमानों के ध्यान में आई है। लाहौर के विधिमंडल में भारतीय-मुसलिम स्त्री बुरका पहनकर प्रतिनिधित्व कर रही थी यह बात प्रशंसा की थी। समाचारपत्रों में छप रही थी। उसी समय उधर अलबेनिया के बादशाह ने अपनी मुसलिम प्रजा को आदेश दिया कि जो स्त्री बुरका पहनकर बाहर घूमेगी उसका वह एक दंडनीय अपराध माना जाएगा। तुर्कों ने अपने राज्य से बुरका निकाल दिया। ईरान ने भी बुरके का निषेध किया है।

इनके कारण भी ध्यान में रखने योग्य हैं। राज्यक्रांति के दिनों में तुर्क विधिमंडल में महिलाओं को प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त हुआ। विरोधी पक्ष कब हिंसा करेगा इसका कमाल पाशा को विश्वास नहीं होता था। अब विधिमंडल में यदि पच्चीस-पचास महिलाएँ बुरका पहनकर आईं तो उनमें सभी स्त्री प्रतिनिधि हैं या कोई छद्मवेषी भी उनमें है यह पता कैसे चलेगा। कोई हत्यारा भी स्त्री वेश में प्रतिनिधि बनकर आ सकता है। ऐसी स्थिति में पोथीनिष्ठ धर्मांधता को बलि न जाते हुए तरुण तुर्कों ने उपर्युक्त कानून बनवाया। उनके अनुसार जिस स्त्री को पोथीनिष्ठा का प्रदर्शन करना है उसे अपना अंतः पुर छोड़कर बाहर जाने की जरूरत ही क्या ? हाट-बाजार की भीड़ में घुसना और लोगों का स्पर्श होता है इसलिए चिढ़ना मूर्खता है या छेड़खानी ? तरुण तुर्क के समान मुसलिम राष्ट्रों ने अज्ञानी रूढ़ि समझकर बुरकों का त्याग किया तो भारतीय मुसलमान यदि उसे भूषण मानने लगेंगे तो उनका ही नुकसान होगा। इस प्रकार के स्वधर्माभिमानियों का अनुकरण करना पागलों के पीछे लगकर स्वयं पागल होना है।

देखिए यूरोप को। बाइबिल में स्त्रियों और गुलामों को केवल आश्रित और दया का विषय माना है- समानता का नहीं! परंतु आज के व्यवहार में उस पोथी को बाँधकर उन्होंने आज के राष्ट्र की धारणा हेतु आवश्यक स्त्री समानता के, स्वतंत्रता के नए-नए निर्बंध तुरंत लागू किए। इसलिए आज उनकी महिलाओं की सेनाएँ रण- मैदान में लड़ रही हैं।

उन्होंने दासप्रथा अपने लोगों के लिए दंडनीय ठहराई है। इसलिए हमें उनका उपयुक्त प्रमाण में अनुकरण करना चाहिए । ”

संदर्भ – विज्ञाननिष्ठ निबंध

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