श्री गुरु पूर्णिमा, जिसे ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है, हमारे लिए अत्यन्त महत्व एवं पवित्रता का पर्व है। महर्षि व्यास ने ज्ञान के विपुल भण्डार, वेदों का वर्गीकरण कर, उसका संयोजन-सम्पादन किया था। उन्होंने युगानुयुग से भारत में विकसित जीवन मूल्यों व उदात्त सद्गुणों के वैशिष्ट्य का निरूपण किया और उनमें निहित विचार व आचार का मनोहारी संश्लेषण प्रस्तुत किया। उनका यह कार्य न केवल, भारतीयों, अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए दिशा-निर्देशक आदर्श प्रकाश स्तम्भ के रूप में विद्यमान है। इस प्रकार वेदव्यास को जगद्गुरु कहना समीचीन ही है। इसी कारण गुरु-पूजा को ‘व्यास-पूजा’ भी कहा जाता है। आज के दिन हम अपने निर्धारित गुरु का पूजन-अर्चन करते हैं और उसके चरणों में विनम्रतापूर्वक भेंट अर्पित करते हैं। हम उसका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं तथा उसके मार्गदर्शन में अपने जीवन के ध्येय पथ पर अग्रसर होने का संकल्प लेते हैं।
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जहां तक हमारी संरचनात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध है, हमने किसी व्यक्ति को अपना गुरु नहीं माना। हमारे धर्मग्रन्थों में महिमापूर्ण ढंग से गुरु का गुणगान किया गया है और उसे भगवान के समकक्ष आसन पर आरूढ़ किया गया है। स्वाभाविक रूपेण हाड़-मांस के किसी मनुष्य में ऐसे गुरु भगवा ध्वज इस पवित्र भूमि पर अनन्त काल से विकसित सर्वोच्च-सिद्धान्तों तथा आचरणों का प्रतीक रहा है। ऐसे गुरु की अर्चना करते समय हम अपने हृदय में कैसा भाव संजोते हैं ? पुष्प, चन्दन चढ़ाना तथा आरती आदि करना तो बाह्य क्रियाएं में निहित है। अतः अपने गुरु से अधिकाधिक तादात्म्य स्थापित करना ही सच्ची मात्र हैं। सच्ची उपासना तो गुरु के गुणों को अपने जीवन में आत्मसात् करने के प्रयास आराधना है। शास्त्रों में कहा गया है कि शिव की सच्ची आराधना शिव बनने में ही है।की प्राप्ति असम्भव है। किसी मर्त्य पुरुष से परिपूर्ण होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि उसमें दोष व त्रुटियां होना स्वाभाविक है। और अन्ततः मानव जीवन क्षणभंगुर ही तो है। अतः कोई मनुष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी राष्ट्र का शाश्वत मार्गदर्शक नहीं बन सकता।
अतः हमने संघ में ऐसे प्रतीक को चुना है, जो हमारी राष्ट्रीय धरोहर के पवित्रतम एवं महानतम मूल्यों को सहज ही प्रतिबिम्बित करता है। वह प्रतीक है हमारा परम पवित्र भगवाध्वज ।
यज्ञ का प्रतीक
यज्ञ अर्थात् त्याग को हमारी सांस्कृतिक विरासत में केन्द्रीय महत्व का स्थान प्राप्त है। ‘यज्ञ’ शब्द के कई अर्थ हैं। समाज के पुनर्निर्माण हेतु अपने व्यक्तिगत जीवन का उत्सर्ग कर देना यज्ञ है। अपने अन्दर विद्यमान समस्त महत्वहीन अनुपयोगी व अपवित्र दुर्गुणों का सद्गुणों की अग्नि में आहुति देना भी यज्ञ है। समर्पण, बलिदान, सेवा और तपस्या के कंटकाकीर्ण मार्ग का वरण करना भी यज्ञ का मूल तत्व ही है। यज्ञ के अधिष्ठाता देव अग्नि हैं। लपटें अग्नि की प्रतीक हैं और पवित्र भगवा ध्वज प्रतीक है नारंगी रंग की यज्ञ लपटों का।
भगवान का ध्वज
हम श्रद्धा के पुजारी हैं; अन्धविश्वास के नहीं। हम ज्ञान के भक्त हैं; अज्ञान के नहीं। हमारे ऋषि-मुनियों ने अज्ञान से मुक्ति पाने और सत् एवं शाश्वत् ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करने हेतु ही घोर तपस्या की थी। अन्धकार द्योतक है अज्ञान का और सूर्य द्योतक है ज्ञान के प्रकाश का। हमारे पुरातन साहित्य में सूर्य नारायण को सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ वर्णित किया गया है। नभो मण्डल में भगवान भुवन भास्कर के आगमन (४७१ पृष्ठ) कान्ति वाला अरुण ध्वज। यह तमस् पर ज्योति की विजय तथा रात्रि के अनन्तर नव विहान के आलोक की उद्घोषक उषा की अरुणिमा का प्रतीक है।
भगवान् सूर्य नारायण की गैरिक पताका ही स्वयं भगवान् का ध्वज है, जो बाद में ‘भगवा ध्वज’ कहलाया ? यह मानव-जीवन की सर्वोच्च स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है और चतुर्थ तथा अन्तिम आश्रम संन्यास आश्रम का प्रतीक है; जिसके लिए सम्पूर्ण त्याग तथा सेवा की भावना अपेक्षित है। संन्यासी को आत्म त्याग के अग्नि पथ पर अविचल भाव से बढ़ना होता है। त्यागमय जीवन का सतत स्मरण रखने हेतु ही संन्यासी भगवा बाना धारण करता है।
सच्ची पूजा
भगवा ध्वज इस पवित्र भूमि पर अनन्त काल से विकसित सर्वोच्च-सिद्धान्तों तथा आचरणों का प्रतीक रहा है। ऐसे गुरु की अर्चना करते समय हम अपने हृदय में कैसा भाव संजोते हैं ? पुष्प, चन्दन चढ़ाना तथा आरती आदि करना तो मात्र बाह्य क्रियाएं है। अतः अपने गुरु से अधिकाधिक तादात्म्य स्थापित करना ही सच्ची आराधना हैं। सच्ची उपासना तो गुरु के गुणों को अपने जीवन में आत्मसात् करने के प्रयास में निहित है। शास्त्रों में कहा गया है कि शिव की सच्ची आराधना शिव बनने में ही है।
‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’
गुरु पूजा के दिन धन के रूप में हम जो अर्पित करते हैं, वह हमें यह याद दिलाता है कि हम जीवन में जो कुछ भी अर्जित करते हैं, वह हमारे चतुर्दिक समाज के सहयोग से ही सम्भव होता है। केवल आर्थिक उपार्जन ही नहीं, बल्कि हमारी संपूर्ण सुरक्षा व सुख भी समाज की कृपा का ही वरदान है। इस प्रकार यह हमारा दायित्व बन जाता है कि हम उस सामाजिक ऋण को यथासंभव अधिक से अधिक चुकाकर ऋण-मुक्त हो जायें।
वास्तव में अपने दैनन्दिन जीवन में एक घण्टे की नियमित शाखा में हम अपने तन-मन व बुद्धि का जो समर्पण करते हैं; वह भी उस सामाजिक दायित्व की ही पूर्ति का प्रतीक है। आत्म-समर्पण की इस भावना के अनुरूप ही संघ में गुरुदक्षिणा पद्धति का विकास हुआ है।
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