किसे हिन्दू कहें और किसे अहिन्दू ? – वीर सावरकर

जो लोग श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त को प्रमाण मानते हैं वे ‘सनातनी’ कहलाते हैं । जो केवल श्रुति को ही प्रमाण मानते हैं वे ‘वैदिक’ कहलाते हैं । स्वयं के धर्म को वैदिक धर्म की शाखा इतना ही नहीं तो विकसित रूप भी मानने से जो नकारा करते हैं और इस प्रकार स्वधर्म को पूर्णतः स्वतन्त्र धर्म मानते हैं – ऐसे जैन, सिक्ख, बौद्ध ( भारतीय बौद्ध) आदि कोई भी अपनी धर्मनिष्ठा का यत्किंचित् त्याग किये बिना ही प्रस्तुत हिन्दुत्व की परिभाषानुसार स्वतः को सुखेनैव हिन्दू मान सकता है, इतना ही नहीं तो उससे नकारा कर ही नहीं सकता । वैसे ही मुसलमान, ईसाई, ज्यू आदि जो अहिन्दू हैं, उन्हें अहिन्दू क्यों कहा जाये इसे निःसंदिग्धता से बताया जा सकता है । देखिये—

जैन हिन्दू कैसे ? प्राचीन वैदिक काल से ही जैनियों के पितरों की परम्परागत पितृभू भारतभूमि ही है तथा उनके तीर्थंकरादि धर्म गुरुओं ने उनके जैन धर्म की स्थापना इसी भारतभूमि में की होने से यह भारतभूमि उनकी पुण्यभू ( Holy Land) भी है ही। इस ‘अर्थ में तथा केवल इसी अर्थ में’ हमारे बहुसंख्यक जैन बन्धु स्वेच्छा से स्वतः को हिन्दू मानेंगे । क्योंकि, यह ऐतिहासिक सत्य है एवं उनमें से जिन लोगों का ऐसा विश्वास है कि उनका धर्म वैदिक धर्म की शाखा न होकर पूर्णतः स्वतंत्र या अवैदिक धर्म है, उनकी इस धारणा को भी प्रस्तुत परिभाषा से तनिक भी ठेस नहीं पहुँचती । जिस काल में हिन्दू अर्थात् वैदिक, ऐसा हिन्दू शब्द का भ्रान्तिपूर्ण अर्थ माना जाता था तब भर ऐसे स्वतन्त्र धर्ममतवादी जैनियों को उस विशिष्ट अर्थ में स्वयं को हिन्दू कहलाने में विषमता का अनुभव होना स्वाभाविक ही था ।

सिक्ख हिन्दू कैसे ? चूँकि उसी वैदिक सप्तसिन्धु की सिन्धुसरिता से सरस्वती तक के आर्यों के मूलस्थान में उनका आज भी परम्परागत निवास है, अतएव भारतभूमि ही उनकी पितृभू है तथा चूँकि, उनके नानकादि धर्मगुरुओं ने इसी भूमि में उनके सिक्ख धर्म की प्रस्थापना की – उनके धर्म की जड़ भी इसी भूमि में फैली हुई है, अतः इसी अर्थ में यह भारतभूमि उनकी पुण्य भूमि है, Holy Land है । अतः सिक्ख अतः सिक्ख हिन्दू ही हैं, फिर चाहे वे वेद को मानते हों या न मानते हों, मूर्तिपूजा करते हों या न करते हों । 

आर्यसमाजी हिन्दू कैसे ? जहाँ तक पितृभूमि के प्रति गर्व का , प्रेम का प्रश्न है, आर्यसमाजी तो किसी से पीछे रहने वाला नहीं तथा वैसे ही इस भारत भूमि को पुण्यभूमि का सम्मान देने में भी वे सदा ही आगे रहते हैं । वे तो हिन्दू हैं ही, फिर चाहे वे पुराण एवं स्मृतियों को मानें या न मानें ।

वही बात ‘लिंगायत राधास्वामीपन्थी’ आदि हमारे यच्चयावत् धर्मों एवं धर्मपन्थों की है अपरंच, ‘भील, सन्थाल, कोलेरियन’ आदि जो लोग भूत-प्रेतों की या पदार्थ की पूजा करने वाले (Animists) होंगे उनकी भी परम्परागत पितृभूमि भारतभूमि ही है, तथा कम-से-कम ज्ञात इतिहासकाल से तो उनके पुजापन्थ इसी भारत-भूमि को पुण्यभू भी मानते आये हैं । अतएव वे भी हिन्दू ही हैं। इस प्रकार समस्त हिन्दू बन्धु इस परिभाषा में सहज ही समा जाता है ।

पर मुसलमान ईसाई ज्यू हिन्दू क्यों नहीं माने जा सकते ? यद्यपि उनमें से ऐसे कई लोगों की परम्परागत पितृभूमि यह भारतभूमि ही है, जो धर्म परिवर्तन से भ्रष्ट हो चुके हैं, फिर भी उनके धर्म अरब स्थान पैलेस्टाइन आदि भारतबाह्य देशों में उत्पन्न होने से, वे उन भारत-बाह्य देशों को ही स्वतः की पुण्यभू (Holy Land ) मानेंगे । इस प्रकार यह भारत भूमि उनकी दृष्टि में पुण्यभू न होने से वे हिन्दू नहीं माने जा सकते ।

वैसे ही चीनी-जापानी स्वामी श्रादि को भी पूर्णतः हिन्दू क्यों नहीं माना जा सकता ? – जो भी, उपर्युक्त लोग धर्म से हिन्दू ( बौद्ध ) हैं और इस प्रकार भारतभूमि उनकी पुण्यभू है तो भी वही भारतभूमि उनकी पितृभू नहीं है। उनका हमारा सम्बन्ध धर्म का है । पर, राष्ट्रभाषा, वंश, इतिहास आदि सर्वथा भिन्न है । उनका हमारा एकराष्ट्रीय सम्बन्ध तो मूलतः ही नहीं है, इसीलिए जो भी वे हिन्दू धर्म के अन्तर्गत हैं तो भी सम्पूर्ण हिन्दुत्व के अधिकारी नहीं हो सकते । स्थिति भी वैसी ही है । जापानी, चीनी आदि बौद्ध होने के नाते स्वयं को हिन्दू धर्म के अनुयायी कहला सकते हैं, पर वे हिन्दूराष्ट्र के अन्तर्गत नहीं रहेंगे, संलग्न तो निश्चित रूप से ही नहीं कहलायेंगे । ‘हिन्दू धर्म परिषद् में उन्हें समानता से समाविष्ट किया जा सकता है- – पर ‘हिन्दू महासभा में’ अर्थात् हमारी ‘हिन्दूराष्ट्रसभा में उन्हें समाविष्ट नहीं किया जा सकता। उनकी राष्ट्रसभाओं में हमें समाविष्ट नहीं किया जा सकता। पर वैदिक, सिक्ख, भारतीय बौद्ध, जैन, सनातनी श्रादि हम सब लोग जो हिन्दुत्व के पूर्णतः अधिकारी हैं, एकराष्ट्रीय भी हैं ही, क्योंकि, भारतभूमि केवल हमारी पुण्यभू ही न होकर पितृभू भी है ।

शुद्धीकृतों की समस्या भी इस परिभाषा से उर्सी प्रकार हल की जा सकती है । जो पूर्व में हिन्दू ही थे वे शुद्ध होते ही पूर्ण रूप से हिन्दुत्व के अधिकारी हो जाते हैं, क्योंकि उनकी पितृभू एवं पुण्यभू दोनों ही भारतभूमि ही है । पर, जो अमेरिकन, आंग्ल (अंग्रेज़) आदि विदेशी हैं, जिनकी पितृभू भारतभूमि नहीं है, उनके द्वारा ‘हिन्दूधर्म का ग्रहण होते ही वे धर्म से हिन्दू हो जाते हैं, पर राष्ट्रीय दृष्टि से भिन्न ही होने से सम्पूर्ण हिन्दुत्व के अधिकारी नहीं माने जा सकते ।’ क्योंकि, जो भी भारतभूमि उनकी पुण्यभू होगी, तो भी, पितृभू तो कोई दूसरी भूमि होगी । ‘उनमें से जो लोग शरीर सम्बन्ध से हमसे विवाहबद्ध होंगे – अर्थात् वंश, जाति, राष्ट्र आदि रूपों से – रक्तबीज से हमसे एकरूप होंगे या हिन्दुस्थान की नागरिकता प्राप्त कर उसे पितृभू मानेंगे तो वे भर पूर्णतः हिन्दुत्व के अधिकारी होंगे।’ ‘हिन्दू’ की हमारी यह परिभाषा ‘समस्त संसार में हिन्दूधर्म का प्रचार करने के मार्ग में किसी भी प्रकार बाधक नहीं है ।

-वीर सावरकर
हिंदुत्व के पंचप्राण

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