आंतरिक संकट – कम्युनिस्ट

साम्यवाद के लिए भूमि की तैयारी


अंग्रेज के इस देश को छोड़कर जाने के पश्चात् जब हम अपने राष्ट्र की भावी रचना को आकार देने के लिए स्वाधीन हुए, तो हमारे लिए विविध सिद्धांतों और वादों पर विचार-विमर्श करना एक महत्व की बात हो गई। निस्संदेह हमने पाश्चात्य ढंग की जनतांत्रिक रचना को अपनाया है, किंतु क्या इतने वर्षों के प्रयोगों के पश्चात् हम इसके हितकर फलों को प्राप्त करने में समर्थ हो पाए हैं ? जनता की सामूहिक इच्छा का प्रतीक बनने के बजाय इसने सब प्रकार की अस्वास्थ्यकर स्पर्धाओं, स्वार्थ एवं विच्छेद की शक्तियों को बढ़ावा दिया है।

हमारे देश में जनतंत्र की गंभीर असफलताओं में कम्युनिज्म की बढ़ती हुई विभीषिका है, जो जनतांत्रिक विधान की मानी हुई शत्रु है। जनता के समक्ष की गई अपनी आर्थिक अपील में कम्युनिस्टों से कहीं पिछड़ न जाएं, इस प्रयास में हमारे नेतागण कम्युनिस्टों की ही भाषा तथा कार्यक्रमों को अपनाकर कम्युनिज्म को अधिक सम्माननीय बना रहे हैं। यदि नेतागण यह समझते हैं कि इस प्रकार के चातुर्य से वे कम्युनिस्टों के पाल की हवा खींच लेंगे, तो यह इनकी बहुत बड़ी भूल है।

वे यह अनुभव करते हैं कि आर्थिक विकास ही कम्युनिज्म से रक्षा का एकमेव उपाय है। उच्चतर जीवन-स्तर’ के आश्वासन की जनता के कानों में हो रही सतत घोषणा, ऐसे समय में उनकी अपेक्षाएं बढ़ाना जब वे संभवत: संतुष्ट नहीं की जा सकतीं, विफलता के भाव की वृद्धि करना एवं सामान्य जनता के लिए असंतोष और अराजकता के मार्ग को प्रशस्त करना है। हमें देशभक्ति, चरित्र एवं ज्ञान जैसी उच्चतर भावनाओं के लिए आह्वान कहीं भी सुनने को नहीं मिलता और न कहीं सांस्कृतिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास पर ही बल दिया जाता है। इसी प्रकार के दुर्बल एवं विफल मस्तिष्कों में कम्युनिज्म के बीज जल्दी जड़ पकड़ते हैं।

आग में घी डालना


कम्युनिज्म की इस विभीषिका को रोकने का पाश्चात्य देशों का दृष्टिकोण भी | यहां कम्युनिज्म के विस्तार के लिए प्रोत्साहन देने में अपना योगदान करता है। अमरीका का विश्वास है कि अधिकाधिक डालर-सहायता कम्युनिज्म की समस्या स्पष्ट का का हल कर देगी। चीन के संबंध में तथा अब वियतनाम में हुए अनुभवों ने दिया है कि तद्नुरूप राष्ट्रीय चारित्र्य एवं आत्मविश्वास की निर्मिति के बिना इस प्रकार की सहायता का कोई लाभ नहीं होगा। प्रत्येक आर्थिक सहायता के साथ होने वाला उनका देशव्यापी प्रचार जनता की केवल आर्थिक संज्ञा को ही उत्तेजित करता है और उन पहलुओं से वंचित रखता है, जो स्वतंत्र एवं जनतांत्रिक जीवन के वास्तविक मेरुदंड का निर्माण करते हैं।

पाश्चात्य जन इस विचित्र बुद्धि-विभ्रम से भी पीड़ित हैं कि यदि हमारे देश की कम्युनिज्म से रक्षा करनी है तो प्राचीन हिंदुत्व मिट ही जाना चाहिए। उन्हें लगता है कि केवल ईसाई पंथ ही कम्युनिज्म की बाढ़ का प्रतिरोध कर सकता है। अर्नाल्ड टायनबी ने कम्युनिज्म का वर्णन ईसाई पाखंडमत’ कहकर किया था। आश्चर्य का विषय है कि वही आज यह कहने लगे हैं कि ईसाई पंथ ही कम्युनिज्म के लिए एकमात्र उत्तर है।

ईसाई पंथ इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है, जो स्वयं उसी की त्रुटियों की प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न हुआ है। जिनका यह विचार है। इस मूर्तिपूजक देश की रक्षा ईसाई पंथ ही कर सकता है, उन्हें कुछ रुककर यह सोचना होगा कि ईसाई-विश्व के सबसे कट्टर देश रूस ने ईसा मसीह का परित्याग क्यों किया? अपने देश में ही क्या स्पष्ट नहीं है कि केरल प्रांत, जहां ईसाई जनसंख्या का प्रभाव सर्वाधिक है, सबसे बड़ा कम्युनिस्ट क्षेत्र है। यदि पाश्चात्यों का यह विचार है कि हिंदुओं को ईसाई पंथ में धर्मांतरित करने के लिए धन तथा जन उंडेलकर वे इस देश को कम्युनिज्म से बचा लेंगे, तो वे केवल आत्मघाती आत्मवंचना से ही ग्रस्त है, क्योंकि ईसाइयत के प्रसार से समाज की प्राचीन श्रद्धाएं और राष्ट्रीयता भंग हो जाता है और जहां श्रद्धाएं भंग हो जाती हैं, वहीं कम्युनिज्म जड़ पकड़ता है। कम्युनिज्म के बढ़ने का यही सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक तत्व रहा है।

निष्ठा के अभाव का परिणाम कम्युनिज्म


मनुष्य केवल रोटी से ही जीवित नहीं रहता, उसकी कोई निष्ठा भी होनी चाहिए , जिनके लिए वह जीवित रहे और मरे। इसके बिना जीवन दिशा एवं अर्थ से विहीन हो जाता है तथा मनुष्य इधर-उधर बहने लगता है। वह खोया हुआ सा अनुभव करता है। ऐसी अवस्था में अधिक समय रहना प्राणी के लिए एक असंभव-सी बात होती है। विज्ञान के उदयकाल तक यूरोपीय जन को ईसाई धर्म आवश्यक निष्ठा प्रदान करता था. किंतु विज्ञान ने इसे नष्ट कर दिया। फिर भी यूरोप को एक लंगर खोने के पश्चात् अपनी नौका को स्थिर रखने के लिए दूसरा सहारा मिल गया था धर्म से इसकी निष्ठा चली गई, किंतु विज्ञान में नवीन निष्ठा प्राप्त हो गई । वास्तव में विज्ञान यूरोप का नवीन धर्म हो गया। तब लोग विज्ञान को इसी प्रकार सर्वज्ञ और सर्वशक्तिसंपन्न मानने लगे, जैसा किसी भी धर्म में ईश्वर के विषय में विचार किया जाता है।

परंतु कुछ शताब्दियों के पश्चात् विज्ञान ने अपने को इस रूप में अप्रमाणित करना आरंभ कर दिया । वैज्ञानिक विश्व के संबंध में अपने अज्ञान को स्वत: स्वीकृत करने लगे। आधुनिक काल के सबसे बड़े वैज्ञानिक आइंस्टीन ने भी एक ऐसे सत्य की सत्ता को स्वीकार किया है, जो भौतिक विज्ञानों की पहुंच के परे है। इस प्रकार वैज्ञानिक लोग विक्टोरिया युग के सर्वज्ञता के मनोभाव के स्थान पर यह अनुभव करने लगे कि उनके समक्ष ज्ञान का एक संपूर्ण सागर अज्ञात-सा पड़ा है और इस अवसाद के पश्चात् पश्चिम का मनुष्य अज्ञात सागर में कर्णहीन नौका के समान हो गया । प्राचीन निष्ठाएं मर चुकी थीं तथा नवीन प्रकाश में आ नहीं पाई थीं। निष्ठा की इसी रिक्तता की स्थिति में यह घटित हुआ कि इस अवकाश को पूर्ण करने के लिए कुछ ऐसे विश्वास आए, जिनमें सत्य एवं शिव का आभास मात्र था। ऐसा ही एक विश्वास कम्युनिज्म था।

अत: हमारी प्राचीन जीवनदात्री निष्ठा को उन्मूलित करने वाला किसी भी दिशा से किया गया प्रयास हमारे राष्ट्रजीवन पर भीषण संकट को निमंत्रण है, क्योंकि इसी विश्वास ने हमारे अस्तित्व को बनाए रखा और इसी ने मानव-संस्कृति के श्रेष्ठतम पुष्प उत्पन्न किए हैं।

प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण सदैव संकटापन्न


हमारे देश में कम्युनिज्म की विचारधारा को विफल करने के विविध प्रयत्न हो रहे हैं। कुछ लोग अनुभव करते हैं कि विनोबा जी द्वारा चलाया गया भूदान आंदोलन कम्युनिज्म के समान यह घोष कि ‘भूमि जोतने वाले के लिए’ तथा विनोबाजी के कुछ अदूरदर्शी अनुयाइयों द्वारा दी गई यह धमकी कि ‘यदि तुम स्वेच्छा से नहीं दोगे, तो कम्युनिस्ट निश्चित रूप से आएंगे और तुम्हारा सब कुछ बलात् हरण कर लेंगे’ विपरीत प्रभावकारी सिद्ध होंगे। क्योंकि वे जनमानस में एक विचार अंकित करते हैं कि अंतत: कम्युनिज्म सही और अवश्यंभावी है। यह कम्युनिज्म के लिए परोक्ष स्वीकृति होगी। इससे भी बढ़कर जनता में यह संशय उत्पन्न हो जाएगा इस प्रकार से सभी आंदोलन, जो उनकी उन्नति के नाम पर चलाये जाते हैं, कम उत्साह के और वंचनापूर्ण हैं। वे ऐसा कह सकते हैं, ‘चूंकि अब कम्युनिस्ट आगे बढ़ रहे हैं, तुम इन सभी सुधारों और प्रतिज्ञाओं को लेकर आगे आना चाहते हो। हम स्पष्टवादी कम्युनिस्टों को अधिक पसंद करेंगे। वे कम से कम प्रामाणिक और साहसी तो हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका वही अर्थ होता है। इसलिए हम उनका विश्वास कर सकते हैं। इस प्रकार अपेक्षाओं के विपरीत यह आंदोलन कम्युनिस्टों के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकता है। वास्तव में केवल कम्युनिज्म को निष्फल करने के दृष्टिकोण से कार्य करना सदैव संकटापन्न है। यथार्थ एवं भावात्मक निष्ठा का पोषण ही जनता को कम्युनिज्म की हीन विचारधारा के आकर्षण से ऊपर उठा सकता है।

कुछ लोग हैं जो समझते हैं कि जब तक आर्थिक असमानता बनी हुई है, तब तक कम्युनिज्म की वृद्धि अनिवार्य है, किंतु वास्तविकता यह है कि आर्थिक असमानता पारस्परिक घृणा का सही कारण नहीं है, जिस पर कम्युनिस्ट पनपा करते हैं। श्रम की महता का विचार हमारे समाज के मन ने भली प्रकार ग्रहण नहीं किया है। उदाहरण के लिए, एक रिक्शावाला, जो प्रतिदिन तीन चार रुपए कमाता है ए ओ कहकर पुकारा जाता है और क्लर्क जो साठ रुपए मासिक वेतन पाता है ‘बाबूजी’ कहा जाता है। दृष्टिकोण की यही असमानता, जो हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में फैली हुई है, घृणा को उत्पन्न करती है। यह है अधुनातन विपर्यास, जो हमारे जीवन में प्रविष्ट हो गया है। हमारे दर्शन में अपने कर्तव्य कर्मों के पालन से किसी के उच्च-नीच होने का भाव नहीं है। प्रत्येक कार्य उसी सर्वशक्तिमान की समाज के रूप में पूजा है। यह भावना एक बार पुनरुज्जीवित करनी है।

मतपत्र द्वारा समाजवाद


हमारे देश में एक अन्य दिशा से कम्युनिज्म का संकट वास्तविक हो गया है और यह है हमारे शासन की वर्तमान नीति के द्वारा, जिसने समाजवाद को अपना लक्ष्य घोषित किया हुआ है, जिसमें कम्युनिज्म के सभी तत्व मौजूद हैं। इसमें केवल उन्हें प्राप्त करने के साधनों का ही अंतर है। पहली बात यह है कि हमारे नेता कहते हैं कि वे समाजवाद को मतपत्र-पेटिका द्वारा प्राप्त करेंगे, चीन और रूस के समान गोली से नहीं। इसका केवल यही अर्थ होता है कि चीन और रूस के समाज में तथा हमारे समाज में एक अंतर है। संभवत: रूस और चीन के लोग जागृत तथा क्रियाशील थे इसीलिए उन्हें गोली से दबाया गया। यहां हमारे लोग नम्र वीरपूजक हैं। यदि राष्ट्रसेनानी आता है और कहता है मेरे प्यारे मित्र आओ, गर्दन झुकाओ, मैं तुम्हारा सिर काटना चाहता हूँ। हमारे लोग निश्चय ही आगे झुक जाएंगे और अपने को सिर काटने हेतु अर्पण कर देंगे ? इस प्रकार के विनीत लोगों के लिए गोली की क्या आवश्यकता ? मतपत्र-पेटिका पर्याप्त है। यदि नेता कहता है, ‘समाजवाद के लिए मतदान करो’ लोग समाजवाद के लिए मतदान करेंगे। यदि कल उन्हें पता लगेगा कि समाजवाद के पक्ष में मतदान करने से उनकी स्वाधीनता चली गई तथा व्यक्ति के रूप में वे एक यंत्र के निर्जीव अंग मात्र रह गए हैं, तो वे उसे भाग्य का विधान मानकर स्वीकार कर लेंगे।

हमारे लोग मुसलमानी शासन को एक हजार वर्ष से अधिक काल तक इस सीमा तक स्वीकार किए रहे कि आज भी हमें ऐसे कुछ लोग कहते हुए मिलते हैं कि मुसलमान महान एवं संत पुरुष थे। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि हमें हैदरअली, जिसने अपने हिंदू राजा को जेल में डालकर उसका सिंहासन हड़प लिया था, की तथा उसके पुत्र टीपू की प्रतिमा खड़ी करनी चाहिए, जिसने बलात् अनगिनत हिंदुओं को मुसलमान बनाया, बहुत से मंदिर ढाए तथा अनेक स्त्रियों को सताया । अब भी इस सीमा तक हमारा बुद्धिभ्रम बना हुआ है। जब अंग्रेज आए तब कुछ लोगों ने कहा, वे तो स्वर्ग से भेजे गए हैं। कुछ यहां तक बोले कि भविष्य पुराण में भविष्यवाणी की जा चुकी है कि हमारे देश पर विकटेश्वरी नाम की रानी शासन करेगी। वह महारानी विक्टोरिया के अतिरिक्त और कोई नहीं है।’ इस प्रकार के विनम्र लोगों के लिए थोड़ा-सा प्रचार ही पर्याप्त है।

जान बनियन के ‘दि पिलग्रिम्स प्रोग्रेस’ में यात्री को एक दैत्य पकड़ लेता है। वह दैत्य सीधे ही उसकी हत्या करना चाहता है, किंतु अपनी पत्नी के उपदेश से उससे आत्महत्या करने के लिए अनुरोध करता है। दैत्य कहता है, तुम जीवन के इन सब कष्टों को क्यों भोग रहे हो ? आत्महत्या से अधिक आनंददायी और कुछ नहीं है। तुम जो चाहो चुन लो, चाकू, फांसी या विष और अपने कष्टपूर्ण जीवन का अंत कर डालो तथा सदैव के लिए इस भार से मुक्त हो जाओ ।’ वह उस यात्री को ऐसा समझा देता है कि वह आत्महत्या करने को उद्यत हो जाता है। ठीक उसी समय एक मित्र यात्री को सलाह देता है और इस जाल में फंसने से रोकता है। फलितार्थ यह है कि भोले और विनम्र लोगों के लिए थोड़ा-सा अनुनय गोली का काम करता है।

अनिष्ट सूचना


हम देखते हैं कि समाजवाद के नाम पर यहां जो कुछ हो रहा है, सभी उपाय, जिनका हम यहां प्रयोग करते हैं, चीन में घटित हुई चीजों की संशोधित प्रतिलिपि मात्र हैं। केवल अंतर इतना ही है कि चीन में ये परिणाम पाशवी हिंसा के द्वारा प्राप्त किए गए, जबकि वही चीजें यहां परिष्कृत प्रचार के द्वारा की जा रही हैं। यदि हम दोनों देशों के प्रशासनिक कार्यों की तुलना करेंगे तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा। जब वर्तमान कम्युनिस्ट सरकार ने चीन में प्रथम बार सत्ता ग्रहण की तो उन्होंने अपनी एकछत्र सत्ता के लिए किसी चुनौती को नहीं चाहा। अत- उन्होंने पुराने सरदारों, रजवाड़ों तथा उद्योगपतियों को समाप्त किया और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया। उन्होंने बड़े जमींदारों और अंत में छोटे जमींदारों तथा कृषकों को भी समाप्त कर दिया।

यहां भी जमींदारी-उन्मूलन को चुका है। अब सत्रहवां संशोधन आया है, जिसके द्वारा एक छोटे से छोटा कृषक, जिसके पास आधे एकड़ भी भूमि है, भी ‘एस्टेट-होल्डर’ माना जाएगा और सरकार को अधिकार होगा कि उसकी संपत्ति को वस्तुतः बिना प्रतिफल दिए ही ले ले । सरकारी खेती, सामूहिक खेती, बैंकों और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण तथा इसी प्रकार के समाजवादी मतवाद वातावरण में हैं। यह सब कुछ एक प्रकार से प्रत्येक पग पर चीन के मार्ग का ही अनुसरण है। हम चीन के साथ के निकट साम्य को देखने का प्रयत्न करें तथा अति स्पष्ट अनिष्ट सूचना को पढ़े और केवल दास एवं इस व्यवस्था के औजार बन जाने की स्थिति को प्राप्त होने से पूर्व ही चेत जाएं ।

इससे भी आगे यदि विचार करें तो समाजवाद इस मिट्टी की उपज नहीं है। यह हमारे रक्त एवं परंपराओं में नहीं है। हमारे सहस्रों वर्ष प्राचीन राष्ट्रजीवन की परंपराओं एवं आदर्शों से इसका कोई संबंध नहीं। यहां के हमारे करोड़ों लोगों के लिए यह विचार परकीय है। ऐसा होने के कारण इसमें हमारे हृदयों को पुलकित और समर्थ एवं चारित्र्यसंपन्न जीवन के लिए प्रेरित करने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इसमें हमारे राष्ट्रीय जीवन के आदर्श की आवश्यकता पूर्ण करने की प्रारंभिक योग्यता भी नहीं है।

सब प्रकार से अयोग्य


अंततः जैसा हम देख चुके हैं समाजवाद (वैसा ही, जैसा कम्युनिज्म अपने मूल रूप में है, क्योंकि रूस भी अपने को ‘समाजवादी राज्य ही कहता है) वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत में सराबोर एक प्रतिक्रिया के रूप में पैदा हुआ था, रूस को भी लाभान्वित करने में असफल हुआ। सिद्धांत के रूप में बहुत समय पूर्व उसका विस्फोट हो चुका था और अब व्यवहार में विस्फोट हो चुका है।

आजकल हमारे नेता समाजवाद के घातक दोष, अर्थात् व्यक्ति को एक जीवमान सत्ता के रूप में मिटाने के दोष पर ‘जनतांत्रिक समाजवाद’, ‘समाजवादी जनतंत्र’ जैसे घोषों को गढ़कर परदा डालने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में जनतंत्र और समाजवाद की दोनों कल्पनाएं परस्पर विरोधी है। समाजवाद जनतंत्रात्मक नहीं हो सकता और जनतंत्र समाजवादी नहीं हो सकता जैसा हम विचार कर चुके हैं, व्यक्ति-स्वातंत्र्य जनतंत्र का प्रथम विश्वास है, जबकि यह समाजवाद का पहला शिकार है। जनतंत्र में व्यक्ति के गौरव को उच्च स्थान दिया जाता है, जबकि समाजवाद में वह केवल पहिए का एक दांत है, इस भीषण यंत्र का, जिसे हम ‘राज्य’ कहते हैं, केवल एक निर्जीव पेंच है।

राष्ट्र की प्रतिभा को पुनरुज्जीवित करो


इस प्रकार अंग्रेज के छोड़ जाने के पश्चात् हम अपने को एक भ्रमित दशा में विदेशी सिद्धांतों एवं वादों में से प्रत्येक का कुछ न कुछ ग्रहण करने के प्रयत्न में पाते हैं। यह इस देश के लिए अत्यंत अपमानकारक है, जिसने एक ऐसे सर्वग्राही दर्शन को जन्म दिया है, जिसमें राष्ट्रजीवन के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य सभी क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के लिए वास्तविक एवं स्थायी आधार प्रदान करने का सामर्थ्य है। यह विश्वास करना हमारी मेधा एवं मौलिकता का शुद्ध दिवालियापन होगा कि पश्चिम के वर्तमान सिद्धांतों और वादों में मानव की मेधाशक्ति अपनी चरम उच्चता पर पहुंच चुकी है। इसीलिए हमें अपने जीवन-पथ का विकास अपने प्राचीन ऋषियों द्वारा आविष्कृत तर्क, अनुभव एवं इतिहास की कसौटी पर कसे हुए सत्य के आधार पर ही करनी चाहिए।


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