हिंदू-राष्ट्र की अवधारणा अति सहिष्णु व विवेकसम्मत होते हुए भी यह आश्चर्यजनक है कि कुछ लोग भयग्रस्त हैं कि यदि हिंदू-राष्ट्र स्थापित हो गया, तो अल्पसंख्यकों का जीवन संकटापन्न हो जाएगा। यह भय यदि है, तो वह इस मिथ्या धारणा के कारण हैं कि हिंदू-राष्ट्र अन्य धर्म-समूहों (मतावलंबियों) से वैसा ही व्यवहार करेगा, जैसा सामी मजहबों ने किया। यहूदीवाद ऐसा पहला मजहब है, जो असहिष्णु है और उसकी उसी असहिष्णुता के कारण ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया। ईसाई मजहब का उदय यहूदी संतति के रूप में हुआ, किंतु वह भी इतना ही असहिष्णु सिद्ध हुआ। निस्संदेह यीशु महान संत थे, परंतु बाद में उनके नाम पर जो कुछ हुआ, उसका उनसे कोई संबंध नहीं रहा। यह ईसाईवाद नहीं, केवल चर्चवाद बन गया । यह कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ कि ‘आज तक केवल एक सच्चा ईसाई हुआ, जो सूली पर मर गया।’ ईसाइयों ने यहूदियों को ईसा के हत्यारे घोषित कर उन पर हर प्रकार के अत्याचार किए। हिटलर का व्यवहार अपवाद नहीं था, बल्कि ईसाइयों द्वारा २,००० वर्ष से यहूदियों पर ढाए जा रहे अत्याचारों की चरम परिणति था।
इसके बाद इस्लाम का उदय हुआ। यह तलवार और कुरान की दीर्घ कथा है. जिसे मानव -अश्रुओं तथा शोणित से लिखा गया है। इसका अद्यतन अध्याय है स्वयंघोषित इस्लामी मजहबी राज्य पाकिस्तान । उसका भी कोई भिन्न व्यवहार नहीं है। उसने अपनी संपूर्ण हिंदू जनसंख्या का कत्लेआम कर पश्चिमी भाग से बाहर धकेल दिया और दूसरे भाग, अर्थात् बांग्लादेश में आज भी यही सब हो रहा है। उन सबके कारण उनके रक्त में अन्य मतावलंबियों के प्रति असहिष्णुता ने घर कर लिया है। सामी जातियों के मापदंड से हिंदू-राष्ट्र को मापने पर ही यह भय उपजता है कि हिंदू-राष्ट्र दूसरे धर्म-समूहों के जीवन को संकटग्रस्त करेगा। इसी से यह कल्पना जन्म लेती है जिस तरह सामी राज्य अपनी धार्मिक कट्टरता और उत्पीड़न के लिए बदनाम थे, वही सब हिंदू-राष्ट्र में भी होगा।
हिंदू-राष्ट्र का जीवंत स्वरूप
संदेहशील व्यक्तियों के मस्तिष्क से भ्रम हटाने हेतु हम हिंदू-राष्ट्र की ऐतिहासिक परंपरा और विदेशी धर्म-समूहों को आमने-सामने रखकर देख सकते हैं। यह हमारे इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित और विदेशी इतिहासकारों तथा यात्रियों द्वारा भी प्रमाणित जाज्वल्यमान तथ्य है कि हमने अपने राष्ट्रीय जीवन के किसी क्षेत्र में धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं किया।
पंजाब के सिख नायकों के काल में तथा विजयनगर राजाओं के सशक्त हिंदू साम्राज्य में मुस्लिमों ने पूर्ण स्वतंत्रता एवं समानता के अधिकारों का उपयोग किया। छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में उभरी अद्यतन हिंदू पदपादशाही ने भी धर्म के आधार पर मुस्लिमों के साथ भेदभाव नहीं किया। छत्रपति शिवाजी की जलसेना का प्रधान दयासारंग एक मुस्लिम था और उनके दो प्रमुख सिपहसालार इब्राहिम खान व दौलत खान थे। अफजल खां से हुई भीषण मुठभेड़ के समय उपस्थित उनके दस विश्वस्त अंगरक्षकों में से तीन मुस्लिम थे। आगरा में शिवाजी के साथ गए १८ वर्षीय युवक का नाम मदारी मेहतर था, जिसने मुस्लिम होते हुए भी औरंगजेब के चंगुल से उनको रोमांचक ढंग से बचाने में मुख्य भूमिका निभाई। शिवाजी द्वारा मस्जिदों व दरगाहों के लिए भूमिदान के अनगिनत उदाहरण इतिहास में उल्लिखित हैं। यहां तक कि उन्होंने प्रतापगढ़ में अफजलखां की कब्र पर इस्लामी पद्धति से पूजा का प्रबंध भी कराया। उस समय के अति कट्टर मुस्लिम इतिहासकारों ने भी शिवाजी द्वारा मस्जिदों, दरगाहों, कुरान, धर्मपुरुषों और नारियों के प्रति प्रदर्शित उत्कृष्ट सम्मान का प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है। यह सब उस समय किया जब दूसरी ओर मुस्लिम शासक ठीक इसके विपरीत हिंदुओं का चतुर्दिक उत्पीड़न करने में संलग्न थे।
इसके बाद भी ईस्वी सन् १७६१ में पानीपत के रण-प्रांगण में स्वराज्य रक्षा के निर्णायक युद्ध में हिंदू तोपचियों का प्रमुख इब्राहिम गार्दी था, जिसने लड़ते-लड़ते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
हिंदुस्थान ने हजारों वर्ष तक निष्कंटक तथा अपराजेय गौरव व शक्ति का जीवन व्यतीत किया और अपनी आध्यात्मिक व सांस्कृतिक आभा को मैक्सिको से जापान तक विश्व के वृहत् भू-भाग पर विकीर्ण किया इसके ध्वज ने कभी अश्रुपूरित व रक्तरंजित सैनिक-विजय की दिशा में प्रस्थान नहीं किया, जैसा नए देशों में विस्तार करते समय इस्लाम एवं ईसाइयत करते रहे हैं। इसकी विजय सदैव नैतिक व सांस्कृतिक रही है। वहां की जनता ने इसकी विजय का सदैव सोल्लास स्वागत किया, क्योंकि वह विजय नि:स्वार्थ भाव, चरित्र एवं आध्यात्मिक सहिष्णुता की होती थी वह कृतज्ञता का भाव उत्पन्न करती थी, न कि विद्रोह का। शताब्दियों के अंतराल के बाद इस भूमि के प्रति उनकी भावनाएं अब भी धुंधली नहीं पड़ी हैं। आज भी उन राष्ट्रों के श्रद्धालु जनों की हार्दिक इच्छा यही रहती है कि वे हिंदुस्थान की इस पुण्यभूमि पर आकर गंगाजल में नहाने का सुअवसर अवश्य प्राप्त करें । उनके लिए यह इस देश की सामान्य यात्रा नहीं, बल्कि तीर्थयात्रा होती है। इन सबके आधार पर इस राष्ट्र के अनुपम एवं अद्वितीय जीवन-मूल्यों का साक्षात्कार सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इन्हीं जीवन मूल्यों द्वारा इस राष्ट्र के सार-सर्वस्व का गठन हुआ है।
अल्पसंख्यकों को सच्चा आश्वासन
इस प्रकार हिंदू-राष्ट्र की पुनर्प्रतिष्ठा से यहां बसे तथाकथित अल्पसंख्यकों को कोई हानि नहीं, बल्कि सब प्रकार का लाभ ही प्राप्त होगा इस विशाल भू-मंडल पर केवल हिंदू-विचारधारा ने ही संपूर्ण मानव-सभ्यता में एक ही सर्वशक्तिमान की सर्वव्यापकता को स्वीकार किया और सभी पंथों व उपासना -पद्धतियों को स्वाभाविक रूप से पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर प्रदान करने के साथ-साथ इनको ससम्मान प्रोत्साहन और संरक्षण भी दिया है। ये सभी तथ्य इंगित करते हैं कि केवल सुदृढ़ एवं पुनर्जागृत हिंदू-राष्ट्र में ही तथाकथित अल्पसंख्यक इस मातृभूमि की स्वाभिमानी संतान के रूप में समान अवसरों की सहभागिता के साथ स्वतंत्र एवं संपन्न जीवनयापन की आश्वस्ति प्राप्त कर सकते हैं।
– माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर ,
विचार नवनीत